Tuesday, November 11, 2008
कैसे पैदा होगा भारत का ओबामा
मुद्दा है भारतीय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से अमेरिकी राष्ट्पति इन वेटिंग बराक ओबामा द्वारा बात नहीं करना । यह भले ही संयोग हो, लेकिन हुआ बहुत अच्छा है ।`अमेरिकी गांधी' मार्टिन लूथर किंग का सपना पूरा होने जा रहा है । आदमी को आदमी नहीं समझने वाले गोरों के देश में बराक ओबामा भावी राष्ट्रपति के रूप में चुने जा चुके हैं । वहीं के काले हैं जिस अफ्रीका में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य के प्रयोग शुरू किए थे । गांधी की प्रेरणा से पहले दक्षिण अफ्रीका आजाद हुआ और नेल्सन मंडेला वहां के राष्ट्रपति बने । अब बराक ओबामा सुपर पावर अमेरिकी में आम आदमी के प्रति संवेदना के प्रतीक के रूप में राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं । अभी वह सिर्फ प्रतीक हैं क्योंकि अमेरिका में असली सत्ता उन कार्पोरेटों के हाथ में है, जो हर हाल में सबकुछ बेचना जानते हैं। इराक सहित अरब देशों पर इसलिए हमला बोल देते हैं कि तेल के भंडारों पर कब्जा कायम रह सके । ओबामा सही में आम आदमी के प्रतीक बने रह पाएंगे या कोर्पोरेटों के हाथों में खिलौना बन हथियार और ड्रग्स माफियाओं (कारोबारियों ) के हितों के पोषक हो जाएंगे, यह आने वाले समय में तय होना है । अभी तो मुद्दा बात नहीं करना है । यह भले ही संयोग हो, लेकिन हुआ बहुत अच्छा है । इसमें दो राय नहीं कि डा. मनमोहन भारत के आम आदमी की पसंद नहीं हैं । उनपर तथा उनके प्रिय मोंटेक सिंह पर वर्ल्ड बैंक का ... होने का आरोप लगता रहा है । डा. मनमोहन किसी व्यक्ति विशेष (महिला) की पसंद है। दूसरी तरफ ओबामा आवाम की पसंद हैं । असली मुद्दा तो यह है कि जिस गांधी बाबा ने काले अफ्रीकियों के दिलों में जागृति के दीप जला दिए, उनके अपने देश में ओबामा कब पैदा होगा । जरा गौर से देख लें । भारत की सत्ता पर अभी भी गोरों के दलाल ही काबिज हैं । वही राज कर रहे हैं जिनके दादा - परदादाओं ने अंग्रेजों की दलाली की थी । स्वतंत्रता सेनानियों को तो पहले ही भुला दिया गया था, आजादी को बचाए रखने के लिए कुर्बानी देने वाले देश के 75 लाख फौजी भी उपेक्षा के शिकार हैं । आंदोलन कर रहे हैं । जरा अपने अगल बगल देखें । कितने विधायक और सांसद ऐसे हैं जिनके पूर्वजों ने अंग्रेजों की दलाली नहीं की । गिने - चुने होंगे । कुछ ईमानदारी का चोला ओढ़े रूस और चीन के दलाल नजर आएंगे तो कुछ पूंजीवादी अमेरिका और यूरोप के । कुछ कार्पोरेट घरानों के दलाल । कुछ जाति के दलाल, कुछ संप्रदाय और पंथ के तो कुछ धर्म के दलाल मिलेंगे । आम भारतीय का प्रतिनिधि किस तरह सत्ता शीर्ष पर पहुंचेगा । गांधी के रूप में आम भारतीय को सत्ता शीर्ष पर पहुंचाने का जय प्रकाश नारायण ने एक बार प्रयास तो किया था, लेकिन तब तक वह खुद बहुत बूढ़े हो गए थे । उनके बाइ-प्रोडक्ट या यूं कहें वेस्ट प्रोडक्ट भी दलाली कर सत्ता शीर्ष पर पहुंच गए । बहुत कम होंगे जिन्हें लोकसभा भेजने के लिए आम जनता अपने पल्ले से खर्च करती है । ऐसे भारत को झटका देकर ओबामा ने कुछ गलत किया क्या ?
Tuesday, October 21, 2008
जलियांवाला बाग
घटना के 90 और आजादी के 61 साल बाद जलियांवाला बाग मुद्दे पर नए दृष्टिकोण से चर्चा का अवसर मिलना सौभाग्यपूर्ण है। सौभाग्य इसलिए कि इसी बहाने हमें जीवंतता के साथ इतिहास के पन्नों को खोलने का मौका मिला है। इतिहास में भागीदारी के मार्ग खुले हैं। कुछ बुद्धिजीवियों को सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से घटना क्रम को समझने और सत्य की खोज के लिए नए सिरे से अपने दिमाग को झकझोरने की प्रेरणा भी मिल जाए, तो अमृतसर के खालसा कालेज का यह प्रयास सफल मानना गलत नहीं होगा। यह वही कालेज है जिसके प्रिंसिपल जीएस बैथन ने 14 अप्रैल 1919 को गुरु की नगरी अमृतसर पर हवाई हमले का डटकर विरोध किया। सबक सीखाने को उतावले अपने हम वतनों को रोक दिया था। यह वही कालेज है जहां के बड़ी संख्या में छात्र घटना में प्रत्यक्ष गवाह और भागीदार थे।
चर्चा के केंद्र में घटना की तारीख वही है, 13 अप्रैल 1919। परंतु मरने वालों की संख्या आज भी तय नहीं है। कोई साढ़े तीन सौ, कोई साढ़े चार सौ तो कोई 1300 बताता है। यानी जिस घटना को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा, उसके शहीदों की संख्या आज भी आलू - प्याज या फिर कहें शेयर बाजार की कीमतों की तरह कभी उछाल मारती, तो कभी मुंह के बल गिर पड़ती है। जिस घटना के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि अगर पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश सामाज्य का विस्तार शुरु हुआ था तो जलियांवाला बाग की घटना के बाद अंत। क्या सही में ऐसी थी जलियांवाला बाग की घटना। तो फिर जलियांवाला बाग के शहीद आज भी हमारे फ्रीडम फाइटर क्यों नहीं हैं ? क्या कहा, फ्रीडम फाइटर नहीं हैं ! स्वतंत्रता सेनानी नहीं हैं ? जी हां!
जलियांवाला बाग के शहीद भारत की आजादी के 61 साल बाद भी फ्रीडम फाइटर नहीं हैं।
यही है मेरी तरफ से पूरी चर्चा का केंद्र। बिना किसी लाग लपेट के कहूंगा, यही है भारत की असली तस्वीर। हर साल 13 अप्रैल को यह सुन सुन कर कान पक चुका है ---
`जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करता वह कौम मर जाता है।'
अगर यह सही है तो जलियांवाला बाग के शहीदों को नकारने वाले कौम के बारे में बुद्धिजीवी क्या राय रखेंगे ?
- जवाब होगा, नहीं। हम वाइब्रेंट इंडिया (जीवंत भारत) के नागरिक हैं। तेजी से तरक्की कर रहे हैं। दकियानूस विचारधारा वाले ही कौम के मरने जैसी बात कर सकते हैं। यह देश जीवंत है। जिंदा है।
लेकिन इसे स्वीकारने में असहज नहीं होना चाहिए कि कौम का साइज (आकार) भी आजादी के पहले और बाद के पंजाब के आकार की तरह बड़े से छोटा हो गया है। कंप्यूटर और वैश्वीकरण के दौर में ग्लोबल विलेज की बात करते समय कभी महाराष्ट्र, तो कभी जम्मू कश्मीर, तो कभी नार्थ इस्ट के असम व अन्य राज्यों में कौम के उभरे नए कांसेप्ट पर चर्चा करने को दिल मचल उठता है। तभी तो किसी कवि मन कराह उठता है --
ऐ कौम देख तेरी हालत को क्या हुआ
हैरत में है आईना सूरत को क्या हुआ
जिसने बड़े बड़ों के छक्के छुड़ा दिए
उस शूर - वीर कौम की हिम्मत का क्या हुआ ?
इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े हो जाते हैं -----
- क्या देश के वर्तमान हालात अपने शहीदों और आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की उपेक्षा का नतीजा नहीं है ?
- क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस आजादी का सपना देखा था, वो पूरा हुआ ?
अगर नहीं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का विश्लेषण और जरूरी हो जाता है। एक तरफ बड़ी संख्या में फर्जी फ्रीडम फाइटरों ने आजादी के बाद सरकारी स्कीमों का लाभ उठाया। दूसरी तरफ यह ध्यान देने की जरूरत है कि असली फ्रीडम फाइटर असली आजादी, दूसरी आजादी की बात करते हुए एक के बाद एक कर गुमनामी की मौत मरते गए।
- जरा गौर करें, सत्ता पर कौन काबिज हैं ? जो काबिज हैं, उनकी पिछली पीढ़ियों की कारगुजारियों को जनता के समक्ष रखना बुद्धिजीवियों की खोज का विषय बन सकता है।
इन्हीं वजहों से जलियांवाला बाग जीवंत हो उठता है। जलियांवाला बाग को इतिहास के पन्नों से बाहर निकाल कर देखने और समझने की जरूरत है। पहले चर्चा आम अमृतसरियों में 13 अप्रैल 1919 की घटना बारे सोच की। अमृतसर के लगभग 90 प्रतिशत निवासी लोग मानते हैं कि -----
1. लोग गांवों से बैशाखी मनाने स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। वही जलियांवाले बाग में मेला देखने पहुंच गए थे।
2. अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं।
3. बाग में लोग ताश खेल रहे थे और आराम कर रहे थे, सो रहे थे।
4. मारे गए लोग बाग में टहलने के लिए पहुंचे थे।
5. मारे गए लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोर्चा लेने नहीं गए थे। भाषण सुन रहे थे। ऐसे भी लोग थे जो सिर्फ तमाशा देखने पहुंचे थे।
6. फायरिंग होने पर लोग भागने लगे थे। भगौड़े थे। पीठ में गोलियां खाईं।
7. बाग में लोगों पर फायरिंग एक `घटना' थी, आंदोलन नहीं।
8. घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को तत्कालीन सरकार ने चार हजार से 20 हजार रुपये तक का मुआवजा दे दिया था जो सोने की वर्तमान कीमतों के आधार पर 20 लाख से एक करोड़ रुपये तक बनता है।
और अंत में कुछ नहीं चलता है तो पलायन का फार्मूला है ---
9. कुछ तो कारण होगा जिसकी वजह से नहीं मिला दर्जा।
कितनी गंभीर बात है। कुछ लोग इन बातों को शर्मनाक भी कहेंगे। लेकिन स्वीकारना होगा कि आम लोगों के बीच इस तरह के भ्रम के कारण हैं। यह कुटनीतिक फंडा है, किसी कौम को मारना हो तो उसका सम्मान मार देना चाहिए। किसी को अतिवादी कहकर तो किसी को अति उदारवादी बताकर नकार दो। पूरी व्यवस्था ही नकारी हुई हो जाएगी ।61 सालों में देश का सिर्फ बंटवारा ही तो हुआ है। कभी जाति, धर्म, संप्रदाय और पंथ के नाम पर तो कभी क्षेत्र और भाषा के नाम पर । बिना देरी जवाब भी दिया जाना चाहिए। कितनी गंभीर बात है कि मात्र 90 वर्ष बाद ही हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर इतने गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं । इतिहास बदला हुआ है। यानी 90 साल पहले की घटना के बारे हम इतने गलत विचार रख रहे हैं, तो पांच सौ, पांच हजार साल पुराने इतिहास के बारे में हमारी समझ और ज्ञान कितना सही होगा? यह तो इतिहासकार बताएं। सोचें और विचारें । देश के कोने - कोने में ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने फ्रीडम फाइटर के नाम पर दी जाने वाली सुविधाएं नकारीं। क्या हम उन्हें ही नकार कर उनकी शहादत की कीमत दे रहे हैं।देश के हर कोने में ऐसे शहीद हैं जिन्हें हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना । देश के हर इलाके में असली स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान के प्रमाण बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं। देश की प्रगति चाहते हो तो युवाओं मे देश भक्ति का जजबा भरना होगा । अन्यथा प्रतिभाओं के अमेरिका - इंगलैंड पलायन को नहीं रोका जा सकेगा ।बिना लाग लपेट, झूठ फरेब, चिंता फिक्र के बुद्धिजीवियों को बुद्धिजीवी बने रहने का मनोबल तैयार करना होगा । चाटूकारिता छोड़ हमें देश के इतिहास को दिल , दिमाग व दृष्टि के साथ लिखने की हिम्मत करनी होगी। सत्ता पर कब्जे के लिए सच को झूठ बनाने के खेलों को फेल करने के लिए सच्चाइयों का पर्दाफाश करना होगा ।
अब जरा जलियांवाला बाग के शहीदों की उपेक्षा के कारणों पर गौर करें। -----
1. 1947 में भारत - पाकिस्तान बंटवारा हुआ। पंजाब, बंगाल और कश्मीर आदि बंट गए। पहले अमृतसर में मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए लोग यहां दंगे के कारण खाली हुए घरों पर काबिज हो गए। यहीं आजादी के साथ अमृतसर की आबादी ही बदल गई।
2. जलियांवाला बाग में 1919 में मारे गए अधिकांश लोग शहर के निवासी थे। कुछ लोग आसपास के गांवों के भी मारे गए थे। घटना के बाद अमृतसर शहर में गांवों के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय तक पाबंदी रही। मार्शल लॉ लगा दिया गया था। यह बात बताने की जरूरत नहीं कि पहले अधिकांश जाट (सिख) आबादी गांवों में रहती थी। शहर में हिंदू और मुसलमान ज्यादा थे। आजादी के बाद जनसंख्यात्मक ढांचा ही बदल गया।
3. गंभीरता से विचारें - क्या अंग्रेज पहले से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर काम कर रहे थे ? पहले सम्मेलन स्वर्ण मंदिर परिसर में होना था। वहां नहीं होने दिया गया। 1920 से गुरुद्वारा सुधार लहर की शुरुआत हो गई। 1925 में कानून बनाकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक ट्रस्ट (कमेटी) की स्थापन कर दी गई। आजादी की लड़ाई के बीच में ही अलग पहचान के जंग की शुरुआत ! रिसर्च का काम आगे बढ़े तो शायद कुछ मिल जाए। समय और सवाल के तार जुड़ते हैं।
4. मारे गए लोग वैशाखी मनाने वाले नहीं थे। इस भ्रम को ठीक से दूर कर लेना चाहिए कि जलियांवाला बाग में जमा हुए लोगों का वैशाखी से कोई रिश्ता नहीं था। वैशाखी के मौके पर स्नान करने पहुंचने वाले लोग सुबह - सुबह स्नान करते हैं। शाम चार - पांच बजे नहीं। दूर - दूर से आए लोग एक दिन पहले भले ही बाग में ठहरे हों, स्नान के बाद उनके ठहरने का मतलब नहीं। स्पष्टत: लोग सुबह - सुबह ही स्नान करके चले गए थे। घटना के लिए भीड़ का जमा होना दोपहर एक बजे के बाद शुरु हुआ था। फायरिंग की घटना शाम पांच बजे की है।
5. यह कहना भी पूरी तरह गलत और भ्रम फैलाने वाला है कि अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं। अमृतसर पहले से ही रालेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन का केंद्र बना हुआ था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर 30 मार्च और 6 अप्रैल को दिल्ली और मुंबई के साथ अमृतसर में रहा पूर्ण बंद इसका प्रमाण है। 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस का नेतृत्व घोड़े पर सवार होकर डा. हफीज मोहम्मद बशीर द्वारा किया जाना, अमृतसर के तत्कालीन डीसी माईल इरविन का घबराना इसका प्रमाण है कि अंग्रेज अंदर से हिल गए थे। तभी तो 10 अप्रैल को अहले सुबह डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। बदले में हिंसा भड़की और 30 आंदोलनकारी मारे गए।
6. वैशाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 का समागम 10 अप्रैल की हिंसा में मारे गए लोगों के सम्मान में था। शोक सभा थी जिसकी अध्यक्षता डा. सतपाल और डा. किचलू की तस्वीरें कर रही थीं।
7. यह बातें बहुत जोर से हाईलाइट की जाती हैं कि घटना के वक्त लोग बाग में सैर करने, आराम करने और ताश खेलने में व्यस्त थे। यह बहुत बड़ा झूठ है। दावे के साथ कह सकता हूं कि अमृतसर के किसी भी व्यक्ति को याद नहीं होगा कि किसी भी दिन जलियांवाला बाग में एक वक्त में 20 से 22 हजार लोगों का जमावड़ा देखा हो। अब तो वहां की सड़कें चौड़ी हो गई हैं। पहले तो गलियों से होकर बाग में घुसना तो और मुश्किल था। अगर 20 - 22 हजार लोगों में दो - चार - छह सौ लोग सैर, आराम और ताश में व्यस्त भी थे, तो कौन सी बड़ी बात है। इसे इनता मजबूती से क्यों बार - बार दुहराया गया कि हिटलर की रणनीति याद आ जाए, `झूठ को इतनी बार दुहराओ की सच नजर आने लगे।'
8. यह बात पूरी तरह सच है कि बाग में जमा हुए लोगों के पास हथियार नहीं था। यह इस बात को मजबूती ही प्रदान करता है कि लोग शोक व्यक्त करने जमा हुए थे। संघर्ष करने नहीं। जो लोग बाग में जमा हुए थे, सभी वैचारिक तौर पर 10 अप्रैल 1919 को हुई 30 हिंदुस्तानियों की हत्या से बुरी तरह आहत थे। हथियार नहीं होने की बात करने वाले हाथ में एक लाठी लिए और बिना उसका बिना प्रयोग किए देश को आजादी के लिए आंदोलन पैदा कर देने वाले गांधी पर भी सवाल खड़ा करते हैं। ध्यान रखें, गांधी की लड़ाई हथियारों से नहीं, विचारों और सिद्धांतों से लड़ी गई। यही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विशेषता है। तर्क का विरोध करने वाले याद कर लें, दक्षिण अफ्रीका को भी गांधीवादियों ने 1980 के दशक में बिना हथियारों की लड़ाई लड़े स्वतंत्र कराया।
यह मुद्दा क्यों -----
1. यह मुद्दा इसलिए कि इतिहासकार, राजनीति वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, कानूनविद, शिक्षाविद सहित समाज का प्रबुद्ध वर्ग विचार कर सके कि कहीं राष्ट्रभक्ति की कमी ही देश के वर्तमान हालात का कारण तो नहीं।
2. यह मुद्दा इसलिए कि देश की समस्याओं के पीछे छीपे असली मर्ज की पहचान की जा सके । कहते हैं कि बीमारी का पता चल जाए तो इलाज आसान हो जाता है।
3. यह मुद्दा इसलिए कि जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, मजहब, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर देश तोड़ने के प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके ।
4. यह मुद्दा इसलिए कि देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखा जा सके । पलायन - भगौड़ापन और भौंड़ापन खत्म हो सके जिसकी वजह से देश का वर्तमान हाल है । पश्चिमी देशों से उधार में मिली दृष्टि के भरोसे देश न रहे ।
भाषण नहीं भागीदारी का वक्त ----
इसलिए जरुरी है, जागो इंडिया जागो !!!
इसके लिए सबसे पहले अमृतसरियों को जागना होगा ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !
पंजाबियों को जागना होगा । देश को नेतृत्व देने का वक्त है ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !!!
चर्चा के केंद्र में घटना की तारीख वही है, 13 अप्रैल 1919। परंतु मरने वालों की संख्या आज भी तय नहीं है। कोई साढ़े तीन सौ, कोई साढ़े चार सौ तो कोई 1300 बताता है। यानी जिस घटना को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा, उसके शहीदों की संख्या आज भी आलू - प्याज या फिर कहें शेयर बाजार की कीमतों की तरह कभी उछाल मारती, तो कभी मुंह के बल गिर पड़ती है। जिस घटना के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि अगर पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश सामाज्य का विस्तार शुरु हुआ था तो जलियांवाला बाग की घटना के बाद अंत। क्या सही में ऐसी थी जलियांवाला बाग की घटना। तो फिर जलियांवाला बाग के शहीद आज भी हमारे फ्रीडम फाइटर क्यों नहीं हैं ? क्या कहा, फ्रीडम फाइटर नहीं हैं ! स्वतंत्रता सेनानी नहीं हैं ? जी हां!
जलियांवाला बाग के शहीद भारत की आजादी के 61 साल बाद भी फ्रीडम फाइटर नहीं हैं।
यही है मेरी तरफ से पूरी चर्चा का केंद्र। बिना किसी लाग लपेट के कहूंगा, यही है भारत की असली तस्वीर। हर साल 13 अप्रैल को यह सुन सुन कर कान पक चुका है ---
`जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करता वह कौम मर जाता है।'
अगर यह सही है तो जलियांवाला बाग के शहीदों को नकारने वाले कौम के बारे में बुद्धिजीवी क्या राय रखेंगे ?
- जवाब होगा, नहीं। हम वाइब्रेंट इंडिया (जीवंत भारत) के नागरिक हैं। तेजी से तरक्की कर रहे हैं। दकियानूस विचारधारा वाले ही कौम के मरने जैसी बात कर सकते हैं। यह देश जीवंत है। जिंदा है।
लेकिन इसे स्वीकारने में असहज नहीं होना चाहिए कि कौम का साइज (आकार) भी आजादी के पहले और बाद के पंजाब के आकार की तरह बड़े से छोटा हो गया है। कंप्यूटर और वैश्वीकरण के दौर में ग्लोबल विलेज की बात करते समय कभी महाराष्ट्र, तो कभी जम्मू कश्मीर, तो कभी नार्थ इस्ट के असम व अन्य राज्यों में कौम के उभरे नए कांसेप्ट पर चर्चा करने को दिल मचल उठता है। तभी तो किसी कवि मन कराह उठता है --
ऐ कौम देख तेरी हालत को क्या हुआ
हैरत में है आईना सूरत को क्या हुआ
जिसने बड़े बड़ों के छक्के छुड़ा दिए
उस शूर - वीर कौम की हिम्मत का क्या हुआ ?
इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े हो जाते हैं -----
- क्या देश के वर्तमान हालात अपने शहीदों और आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की उपेक्षा का नतीजा नहीं है ?
- क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस आजादी का सपना देखा था, वो पूरा हुआ ?
अगर नहीं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का विश्लेषण और जरूरी हो जाता है। एक तरफ बड़ी संख्या में फर्जी फ्रीडम फाइटरों ने आजादी के बाद सरकारी स्कीमों का लाभ उठाया। दूसरी तरफ यह ध्यान देने की जरूरत है कि असली फ्रीडम फाइटर असली आजादी, दूसरी आजादी की बात करते हुए एक के बाद एक कर गुमनामी की मौत मरते गए।
- जरा गौर करें, सत्ता पर कौन काबिज हैं ? जो काबिज हैं, उनकी पिछली पीढ़ियों की कारगुजारियों को जनता के समक्ष रखना बुद्धिजीवियों की खोज का विषय बन सकता है।
इन्हीं वजहों से जलियांवाला बाग जीवंत हो उठता है। जलियांवाला बाग को इतिहास के पन्नों से बाहर निकाल कर देखने और समझने की जरूरत है। पहले चर्चा आम अमृतसरियों में 13 अप्रैल 1919 की घटना बारे सोच की। अमृतसर के लगभग 90 प्रतिशत निवासी लोग मानते हैं कि -----
1. लोग गांवों से बैशाखी मनाने स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। वही जलियांवाले बाग में मेला देखने पहुंच गए थे।
2. अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं।
3. बाग में लोग ताश खेल रहे थे और आराम कर रहे थे, सो रहे थे।
4. मारे गए लोग बाग में टहलने के लिए पहुंचे थे।
5. मारे गए लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोर्चा लेने नहीं गए थे। भाषण सुन रहे थे। ऐसे भी लोग थे जो सिर्फ तमाशा देखने पहुंचे थे।
6. फायरिंग होने पर लोग भागने लगे थे। भगौड़े थे। पीठ में गोलियां खाईं।
7. बाग में लोगों पर फायरिंग एक `घटना' थी, आंदोलन नहीं।
8. घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को तत्कालीन सरकार ने चार हजार से 20 हजार रुपये तक का मुआवजा दे दिया था जो सोने की वर्तमान कीमतों के आधार पर 20 लाख से एक करोड़ रुपये तक बनता है।
और अंत में कुछ नहीं चलता है तो पलायन का फार्मूला है ---
9. कुछ तो कारण होगा जिसकी वजह से नहीं मिला दर्जा।
कितनी गंभीर बात है। कुछ लोग इन बातों को शर्मनाक भी कहेंगे। लेकिन स्वीकारना होगा कि आम लोगों के बीच इस तरह के भ्रम के कारण हैं। यह कुटनीतिक फंडा है, किसी कौम को मारना हो तो उसका सम्मान मार देना चाहिए। किसी को अतिवादी कहकर तो किसी को अति उदारवादी बताकर नकार दो। पूरी व्यवस्था ही नकारी हुई हो जाएगी ।61 सालों में देश का सिर्फ बंटवारा ही तो हुआ है। कभी जाति, धर्म, संप्रदाय और पंथ के नाम पर तो कभी क्षेत्र और भाषा के नाम पर । बिना देरी जवाब भी दिया जाना चाहिए। कितनी गंभीर बात है कि मात्र 90 वर्ष बाद ही हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर इतने गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं । इतिहास बदला हुआ है। यानी 90 साल पहले की घटना के बारे हम इतने गलत विचार रख रहे हैं, तो पांच सौ, पांच हजार साल पुराने इतिहास के बारे में हमारी समझ और ज्ञान कितना सही होगा? यह तो इतिहासकार बताएं। सोचें और विचारें । देश के कोने - कोने में ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने फ्रीडम फाइटर के नाम पर दी जाने वाली सुविधाएं नकारीं। क्या हम उन्हें ही नकार कर उनकी शहादत की कीमत दे रहे हैं।देश के हर कोने में ऐसे शहीद हैं जिन्हें हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना । देश के हर इलाके में असली स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान के प्रमाण बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं। देश की प्रगति चाहते हो तो युवाओं मे देश भक्ति का जजबा भरना होगा । अन्यथा प्रतिभाओं के अमेरिका - इंगलैंड पलायन को नहीं रोका जा सकेगा ।बिना लाग लपेट, झूठ फरेब, चिंता फिक्र के बुद्धिजीवियों को बुद्धिजीवी बने रहने का मनोबल तैयार करना होगा । चाटूकारिता छोड़ हमें देश के इतिहास को दिल , दिमाग व दृष्टि के साथ लिखने की हिम्मत करनी होगी। सत्ता पर कब्जे के लिए सच को झूठ बनाने के खेलों को फेल करने के लिए सच्चाइयों का पर्दाफाश करना होगा ।
अब जरा जलियांवाला बाग के शहीदों की उपेक्षा के कारणों पर गौर करें। -----
1. 1947 में भारत - पाकिस्तान बंटवारा हुआ। पंजाब, बंगाल और कश्मीर आदि बंट गए। पहले अमृतसर में मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए लोग यहां दंगे के कारण खाली हुए घरों पर काबिज हो गए। यहीं आजादी के साथ अमृतसर की आबादी ही बदल गई।
2. जलियांवाला बाग में 1919 में मारे गए अधिकांश लोग शहर के निवासी थे। कुछ लोग आसपास के गांवों के भी मारे गए थे। घटना के बाद अमृतसर शहर में गांवों के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय तक पाबंदी रही। मार्शल लॉ लगा दिया गया था। यह बात बताने की जरूरत नहीं कि पहले अधिकांश जाट (सिख) आबादी गांवों में रहती थी। शहर में हिंदू और मुसलमान ज्यादा थे। आजादी के बाद जनसंख्यात्मक ढांचा ही बदल गया।
3. गंभीरता से विचारें - क्या अंग्रेज पहले से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर काम कर रहे थे ? पहले सम्मेलन स्वर्ण मंदिर परिसर में होना था। वहां नहीं होने दिया गया। 1920 से गुरुद्वारा सुधार लहर की शुरुआत हो गई। 1925 में कानून बनाकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक ट्रस्ट (कमेटी) की स्थापन कर दी गई। आजादी की लड़ाई के बीच में ही अलग पहचान के जंग की शुरुआत ! रिसर्च का काम आगे बढ़े तो शायद कुछ मिल जाए। समय और सवाल के तार जुड़ते हैं।
4. मारे गए लोग वैशाखी मनाने वाले नहीं थे। इस भ्रम को ठीक से दूर कर लेना चाहिए कि जलियांवाला बाग में जमा हुए लोगों का वैशाखी से कोई रिश्ता नहीं था। वैशाखी के मौके पर स्नान करने पहुंचने वाले लोग सुबह - सुबह स्नान करते हैं। शाम चार - पांच बजे नहीं। दूर - दूर से आए लोग एक दिन पहले भले ही बाग में ठहरे हों, स्नान के बाद उनके ठहरने का मतलब नहीं। स्पष्टत: लोग सुबह - सुबह ही स्नान करके चले गए थे। घटना के लिए भीड़ का जमा होना दोपहर एक बजे के बाद शुरु हुआ था। फायरिंग की घटना शाम पांच बजे की है।
5. यह कहना भी पूरी तरह गलत और भ्रम फैलाने वाला है कि अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं। अमृतसर पहले से ही रालेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन का केंद्र बना हुआ था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर 30 मार्च और 6 अप्रैल को दिल्ली और मुंबई के साथ अमृतसर में रहा पूर्ण बंद इसका प्रमाण है। 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस का नेतृत्व घोड़े पर सवार होकर डा. हफीज मोहम्मद बशीर द्वारा किया जाना, अमृतसर के तत्कालीन डीसी माईल इरविन का घबराना इसका प्रमाण है कि अंग्रेज अंदर से हिल गए थे। तभी तो 10 अप्रैल को अहले सुबह डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। बदले में हिंसा भड़की और 30 आंदोलनकारी मारे गए।
6. वैशाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 का समागम 10 अप्रैल की हिंसा में मारे गए लोगों के सम्मान में था। शोक सभा थी जिसकी अध्यक्षता डा. सतपाल और डा. किचलू की तस्वीरें कर रही थीं।
7. यह बातें बहुत जोर से हाईलाइट की जाती हैं कि घटना के वक्त लोग बाग में सैर करने, आराम करने और ताश खेलने में व्यस्त थे। यह बहुत बड़ा झूठ है। दावे के साथ कह सकता हूं कि अमृतसर के किसी भी व्यक्ति को याद नहीं होगा कि किसी भी दिन जलियांवाला बाग में एक वक्त में 20 से 22 हजार लोगों का जमावड़ा देखा हो। अब तो वहां की सड़कें चौड़ी हो गई हैं। पहले तो गलियों से होकर बाग में घुसना तो और मुश्किल था। अगर 20 - 22 हजार लोगों में दो - चार - छह सौ लोग सैर, आराम और ताश में व्यस्त भी थे, तो कौन सी बड़ी बात है। इसे इनता मजबूती से क्यों बार - बार दुहराया गया कि हिटलर की रणनीति याद आ जाए, `झूठ को इतनी बार दुहराओ की सच नजर आने लगे।'
8. यह बात पूरी तरह सच है कि बाग में जमा हुए लोगों के पास हथियार नहीं था। यह इस बात को मजबूती ही प्रदान करता है कि लोग शोक व्यक्त करने जमा हुए थे। संघर्ष करने नहीं। जो लोग बाग में जमा हुए थे, सभी वैचारिक तौर पर 10 अप्रैल 1919 को हुई 30 हिंदुस्तानियों की हत्या से बुरी तरह आहत थे। हथियार नहीं होने की बात करने वाले हाथ में एक लाठी लिए और बिना उसका बिना प्रयोग किए देश को आजादी के लिए आंदोलन पैदा कर देने वाले गांधी पर भी सवाल खड़ा करते हैं। ध्यान रखें, गांधी की लड़ाई हथियारों से नहीं, विचारों और सिद्धांतों से लड़ी गई। यही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विशेषता है। तर्क का विरोध करने वाले याद कर लें, दक्षिण अफ्रीका को भी गांधीवादियों ने 1980 के दशक में बिना हथियारों की लड़ाई लड़े स्वतंत्र कराया।
यह मुद्दा क्यों -----
1. यह मुद्दा इसलिए कि इतिहासकार, राजनीति वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, कानूनविद, शिक्षाविद सहित समाज का प्रबुद्ध वर्ग विचार कर सके कि कहीं राष्ट्रभक्ति की कमी ही देश के वर्तमान हालात का कारण तो नहीं।
2. यह मुद्दा इसलिए कि देश की समस्याओं के पीछे छीपे असली मर्ज की पहचान की जा सके । कहते हैं कि बीमारी का पता चल जाए तो इलाज आसान हो जाता है।
3. यह मुद्दा इसलिए कि जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, मजहब, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर देश तोड़ने के प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके ।
4. यह मुद्दा इसलिए कि देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखा जा सके । पलायन - भगौड़ापन और भौंड़ापन खत्म हो सके जिसकी वजह से देश का वर्तमान हाल है । पश्चिमी देशों से उधार में मिली दृष्टि के भरोसे देश न रहे ।
भाषण नहीं भागीदारी का वक्त ----
इसलिए जरुरी है, जागो इंडिया जागो !!!
इसके लिए सबसे पहले अमृतसरियों को जागना होगा ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !
पंजाबियों को जागना होगा । देश को नेतृत्व देने का वक्त है ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !!!
Saturday, October 18, 2008
काश ! शिव का विलाप काम आ जाए
काश ! शिव का विलाप काम आ जाए
शिव विलाप कर रहे हैं। यह शिव, शिव चोपड़ा हैं। एनआरआई हैं। 50 साल पहले पढ़ लिखकर भाग गए थे कनाडा। माइक्रोबाइलोजी के विशेषज्ञ हैं। बड़ी - बड़ी दवा कंपनियों में काम किया। कनाडा सरकार को भी हिलाया। स्वीकार रहे हैं कि अपने घर (देश) में भ्रष्टाचार के कारण भागे थे। वैज्ञानिक महोदय साफ सुथरे तरीके से काम करना चाहते थे। बन कर रह गए थे मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ की कठपुतली। जब - जब विरोध किया, मुंह की खानी पड़ी। ज्यादा चालबाजी दिखाई तो कनाडा की संसद ने कानून को ही बदल डाला। जुबान पर ताला लगा दिया। अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों में वही सबकुछ हुआ, जिसके लिए भारत छोड़ा था। अब बूढ़े हो गए हैं तो मुंह उठाए फिर भारत ही लौट आए हैं। बता रहे हैं कि किस तरह कीटनाशक दवाओं से लेकर बीमारियों से लड़ने के लिए टीकों तक का कारोबार होता है। वैक्सिन के नाम पर कितना बड़ा बाजार है। कैसे इनकी वजह से हर आदमी को कैंसर का खतरा हो गया है। देश - विदेश के नेताओं को भी कोस रहे हैं और वैज्ञानिकों को भी। समझा रहे हैं कि पैसों के पीछे किस तरह सभी की नैतिकता बौनी पड़ जाती है। कभी अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में सेमिनार कर रहे हैं तो कभी गरीबों की सेवा में लगी संस्था पिंगलवाड़ा में खड़े होकर देश के पिंगलवाड़ा बन जाने का खतरा बता रहे हैं। कभी गुजरात के अहमदाबाद में जाकर नरेंद्र मोदी को लताड़ रहे हैं। कांग्रेसी हों या भाजपाई, सभी शिव चोपड़ा के निशाने पर हैं। कामरेडों पर भी गुनाह मढ़ने में देरी नहीं कर रहे। तर्कों में दम है। जमीन से जुड़ी बातें कर रहे हैं। गांधी को याद करते हुए दांडी मार्च, नमक सत्याग्रह और अंग्रेजों के भारत से भाग जाने का इतिहास दुहरा रहे हैं। बात बोरिंग हैं परंतु एक तो एनआरआई और ऊपर से पीएचडी विद्वान, देशी विद्वानों की मानों चीर कर हाथ में आ जा रही है। कोई कैसे सवाल उठाए, बाबा शिव 50 साल जो कनाडा में गुजारे तब क्यों नहीं समझ आई। क्या डर नहीं लगना चाहिए। सतर्क नहीं हो जाना चाहिए कि शिव जैसे नामों पर देश के कोने - कोने में भटकने वाले मल्टीनेशनलों के ही एजेंटों की भी कमी नहीं है। कभी एड्स के नाम पर सीरिंज का कारोबार तो कभी हेपेटाइटीस के नाम पर टीके। चेचक के टीके। और अंत में सारा फेल। नया खेल। नया टीका। और तब कंपनियों के बुद्धिजीवी इंप्लांट किए जाते हैं देखने के लिए कि भारत का बाजार कैसा है ? सड़ा - गला माल बेचने की कितनी संभावनाएं हैं ? कहीं विद्रोह तो नहीं हो जाएगा ? शिव की बातों पर कोई सवाल नहीं है। उद्देश्य पर सवाल है। बुद्धि का उपयोग कौन करने जा रहा है ? अभी तक तो शिव चोपड़ा का इस्तेमाल कनाडा, अमेरिका और यूरोप की कंपनियों ने किया। शूट , बूट और टाई वाले शिव , इस देश को न छेड़ो। अभी यह सो रहा है। बेहतर हो यह खुद ही जाग जाए। अपने मिट्टी के प्रति वफादार लोगों द्वारा ही जगा दिया जाए। पूंजीवादी और साम्यवादी के संघर्ष में भारत का असली स्वरूप की खतरे में है। इस देश को जगना होगा। लेकिन जगाने वाला पश्चिम रिटर्न नहीं चाहिए। वैसे कोई एजराज भी नहीं अगर इस शिव का विलाप ही काम आ जाए।
शिव विलाप कर रहे हैं। यह शिव, शिव चोपड़ा हैं। एनआरआई हैं। 50 साल पहले पढ़ लिखकर भाग गए थे कनाडा। माइक्रोबाइलोजी के विशेषज्ञ हैं। बड़ी - बड़ी दवा कंपनियों में काम किया। कनाडा सरकार को भी हिलाया। स्वीकार रहे हैं कि अपने घर (देश) में भ्रष्टाचार के कारण भागे थे। वैज्ञानिक महोदय साफ सुथरे तरीके से काम करना चाहते थे। बन कर रह गए थे मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ की कठपुतली। जब - जब विरोध किया, मुंह की खानी पड़ी। ज्यादा चालबाजी दिखाई तो कनाडा की संसद ने कानून को ही बदल डाला। जुबान पर ताला लगा दिया। अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों में वही सबकुछ हुआ, जिसके लिए भारत छोड़ा था। अब बूढ़े हो गए हैं तो मुंह उठाए फिर भारत ही लौट आए हैं। बता रहे हैं कि किस तरह कीटनाशक दवाओं से लेकर बीमारियों से लड़ने के लिए टीकों तक का कारोबार होता है। वैक्सिन के नाम पर कितना बड़ा बाजार है। कैसे इनकी वजह से हर आदमी को कैंसर का खतरा हो गया है। देश - विदेश के नेताओं को भी कोस रहे हैं और वैज्ञानिकों को भी। समझा रहे हैं कि पैसों के पीछे किस तरह सभी की नैतिकता बौनी पड़ जाती है। कभी अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में सेमिनार कर रहे हैं तो कभी गरीबों की सेवा में लगी संस्था पिंगलवाड़ा में खड़े होकर देश के पिंगलवाड़ा बन जाने का खतरा बता रहे हैं। कभी गुजरात के अहमदाबाद में जाकर नरेंद्र मोदी को लताड़ रहे हैं। कांग्रेसी हों या भाजपाई, सभी शिव चोपड़ा के निशाने पर हैं। कामरेडों पर भी गुनाह मढ़ने में देरी नहीं कर रहे। तर्कों में दम है। जमीन से जुड़ी बातें कर रहे हैं। गांधी को याद करते हुए दांडी मार्च, नमक सत्याग्रह और अंग्रेजों के भारत से भाग जाने का इतिहास दुहरा रहे हैं। बात बोरिंग हैं परंतु एक तो एनआरआई और ऊपर से पीएचडी विद्वान, देशी विद्वानों की मानों चीर कर हाथ में आ जा रही है। कोई कैसे सवाल उठाए, बाबा शिव 50 साल जो कनाडा में गुजारे तब क्यों नहीं समझ आई। क्या डर नहीं लगना चाहिए। सतर्क नहीं हो जाना चाहिए कि शिव जैसे नामों पर देश के कोने - कोने में भटकने वाले मल्टीनेशनलों के ही एजेंटों की भी कमी नहीं है। कभी एड्स के नाम पर सीरिंज का कारोबार तो कभी हेपेटाइटीस के नाम पर टीके। चेचक के टीके। और अंत में सारा फेल। नया खेल। नया टीका। और तब कंपनियों के बुद्धिजीवी इंप्लांट किए जाते हैं देखने के लिए कि भारत का बाजार कैसा है ? सड़ा - गला माल बेचने की कितनी संभावनाएं हैं ? कहीं विद्रोह तो नहीं हो जाएगा ? शिव की बातों पर कोई सवाल नहीं है। उद्देश्य पर सवाल है। बुद्धि का उपयोग कौन करने जा रहा है ? अभी तक तो शिव चोपड़ा का इस्तेमाल कनाडा, अमेरिका और यूरोप की कंपनियों ने किया। शूट , बूट और टाई वाले शिव , इस देश को न छेड़ो। अभी यह सो रहा है। बेहतर हो यह खुद ही जाग जाए। अपने मिट्टी के प्रति वफादार लोगों द्वारा ही जगा दिया जाए। पूंजीवादी और साम्यवादी के संघर्ष में भारत का असली स्वरूप की खतरे में है। इस देश को जगना होगा। लेकिन जगाने वाला पश्चिम रिटर्न नहीं चाहिए। वैसे कोई एजराज भी नहीं अगर इस शिव का विलाप ही काम आ जाए।
Tuesday, October 7, 2008
अंबिका को दुबारा हुआ ढाई साल पुराना आश्चर्य !
केंद्रीय संस्कृति व पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी को ढाई साल बाद दुबारा आश्चर्य हुआ। इस बार आश्चर्य ढाई साल बाद भी जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं मिल पाने को लेकर था। वह बाग ट्रस्ट की सदस्य भी हैं। 14 अप्रैल 2006 को जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं होने बारे पहली बार खुलासा हुआ था। 24 अप्रैल 2006 को अंबिका सोनी वर्तमान हैसियत में ही अटारी बार्डर पर सुविधाओं के विकास कार्यक्रम में पहुंची थीं। नीम चमेली होटल को अमन - उम्मीद के नए नाम से नया रूप देने का उद्घाटन कर गईं। पहले तो उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था कि जलियांवाला बाग के शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा नहीं है। बाद में आश्चर्यचकित हो गई थीं। अब दिसंबर 2006 से बाग ट्रस्ट में मंत्री की हैसियत से मेंबर भी हैं। ढाई साल बाद अमन - उम्मीद (टूरिस्ट कंप्लेक्स) तैयार हो गया। अंबिका सोनी फिर उद्घाटन करने अमृतसर पहुंचीं। आजादी के 61 बाद जलियांवाला बाग के शहीदों की आत्माओं ने उन्हें फिर आश्चर्यचकित कर दिया हैं । दावे के अनुसार उन्हें दुख है कि अभी भी दर्जा नहीं मिला। पिछले दो-तीन दिनों से शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा दिलाने के प्रयास में लग गई हैं। मानव संसाधन और गृह मंत्रालय से संपर्क साधा है। उनके हाथों में दस्तावेज भी सौंप दिए गए थे। हर पन्ना बोल रहा था, शहीद अभी भी फ्रीडम फाइटर नहीं। परंतु क्या इन शहीदों को अब सिर्फ मंत्री जी का ही आसरा है ? ढाई साल के लिए वह फिर याद भूल गईं तो! पता नहीं अगले साल लोकसभा चुनाव के बाद कौन सत्ता पर काबिज हो जाए। क्या जरूरी नहीं कि देशवासी जागें और अपने शहीदों को सम्मान दिलाएं। हर वर्ग में देशभक्ति का जजबा जगाएं।
Monday, October 6, 2008
जलियांवाला बाग : दीवारों की सही, किस ने सुध तो ली
अमृतसर के जलियांवाला बाग के विकास के नाम पर विरासत से खिलवाड़ के खिलाफ राज्य भर के कामरेड नेताओं ने 6 अक्तूबर को शक्ति प्रदर्शन किया। 102 वर्ष की उम्र में बाबा भगत सिंह बिलगा ने आवाज बुलंद की, `बाग को सैरगाह (पर्यटन केंद्र) बनाने की बात करने वालों, तब कहां थे जब जनरल डायर फायर कर रहा था।' सेहत खराब होने के बावजूद 80 वर्ष की सीमा पार कर चुके सतपाल डांग और विमला डांग चिलचिलाती धूप में भी जमे रहे। ऐसे और भी बुजुर्ग जोड़े मौजूद थे। सवाल खड़ा है, जिस देश बुजुर्गों की चैन छिन जाए, वहां नौजवानों की आह तक नहीं निकले, ऐसा क्यों ? मंच से यह सवाल प्रदर्शनकारी नेताओं ने भी उठाए। औसतन 50 साल से अधिक की उम्र वाले इन कामरेड नेताओं की मांग शहीद उधम सिंह का बुत लगाने और जिस रास्ते `मृतकों' को ले जाया गया उन्हें संभालने और केंद्र सरकार की खोजी कमेटी में कामरेड विद्वानों को शामिल करने जैसी बातों में उलझी दिखी। वह इस शर्म का उल्लेख करना ही `भूल' गए कि आजादी के 61 साल बाद भी शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी (फ्रीडम फाइटर) का दर्जा क्यों नहीं मिल पाया है। क्योंकि फिर जवाब देना पड़ना था कि इसमें कामरेडों की भूमिका क्या रही ? सत्ता से फ्रैंडली मैच खेलने के माहिर अधपकी दाढ़ी (50 से 60 वर्ष वाले) कामरेडों ने बाबा बिलगा से इस बारे एसडीएम को मेमोरेंडम सौंपवाया। 1 नवंबर को जालंधर में गदरी बाबयां दे मेले के बाद आंदोलन तेज करने की घोषणा की गई। लेकिन किसके लिए आंदोलन - मरघकट की दीवारों के लिए ? क्या यह शहीदों का अपमान नहीं ? इसे स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों का पवित्र स्थली के रुप में स्वीकार किए जाने पर ही जीवंत किया जा सकता है। ईंटों के लिए रोने वालों को रूहों की परवाह नहीं रही। कहीं से देश प्रेमी की प्रतिध्वनि आती है -
निजात पा नहीं सकोगे मेरे चले जाने के बाद
मकर्द मेरी यादें गुज़श्ता दिलाएगी।
इसके बावजूद दो राय नहीं कि कामरेडों ने जलियांवाला बाग का मुद्दा पकड़ने में बूत परस्त और धर्म निरपेक्ष, दोनों तरह की पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है। कहा जा सकता है, चलो जलियांवाला बाग के शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा देने के लिए न सही, वहां की दीवारों की ही किसी ने सुध तो ली। परंतु इसके भरोसे काम नहीं चलेगा। युवाओं में देश प्रेम भरना पड़ेगा। नौजवानों को जगना होगा। इसलिए जरूरी है, जागो इंडिया जागो।
Saturday, October 4, 2008
किडनी कसाई कौन : डाक्टर या कानून
किडनी का जिन्न फिर निकला है। वर्ष 2002 से बार - बार निकल रहा है। इस बार पंजाब के वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी किरपाल सिंह की जिंदगी दांव पर है। दूसरी तरफ है अमृतसर निवासी नौजवान सन्नी। घरों में रंग - रोगन कर रोजाना सौ - डेढ़ सौ कमाने वाला। किडनी `दान' करने पर सन्नी के लिए नौकरी, प्लाट और शादी (जर, जोरु और जमीन) की उम्मीदें बंधी थीं। इसी बीच मीडिया ने कर दी गरीब मार ! पूरे मामले का खुलासा कर आपरेशन रुकवा दिया। इन सबके बीच कई बार लगता है, कानून पर सवाल खड़ा करने का हक आम आदमी को नहीं है। कानून को विद्वान सांसद बनाते हैं और कार्यपालिका व न्यायपालिका के बड़े बड़े विद्वान उसे लागू करते हैं। फिर भी 1994 से लागू `किडनी काटो कानून' (ह्यूमन आर्गन ट्रांसप्लांटेशन एक्ट 1994) बार - बार ध्यान खींचता है। 13 साल पुराने इस कानून की विशेषताएं अंदर तक झकझोरती हैं। मानवीयता को रुलाती हैं। इस कानून के तहत अबतक जिन लोगों को सजा हुई है, सभी किडनी देने वाले (डोनर) हैं। किडनी लेने वाले (रेसिपिएंट) या दलालों का यह कानून कभी कुछ नहीं बिगाड़ पाया। कुछ इसी तरह की परिस्थितियों पर इन पक्तियों के शायर का दिल भी रोया होगा ---
बादलों के दरमयां कुछ इस तरह साजिश हुई
मेरा घर मिट्टी का था, मेरे ही घर बारिश हुई
किडनी दान की कानूनी व्यवस्था में पैसों के लेन - देन पर सख्त सजा का प्रावधान है। दूसरी तरफ हर माह 15 से 20 हजार वेतन पाने वाला भी किडनी दान की प्रक्रिया में आपरेशन पर आने वाला डेढ़ - दो लाख का खर्च बिना लोन लिए नहीं झेल सकता। दान तो तभी न कहेंगे, जब किडनी लेने वाले को दाता (डोनर) के आपरेशन पर कोई खर्च नहीं करना पड़े। यानी आपरेशन की अनुमति देने वाली कमेटियों की मुख्य जिम्मेदारी ही यही बनती है कि वह देख ले कि डोनर की आर्थिक स्थिति ठीक है या नहीं। क्योंकि किसकी किडनी किसको लगेगी यह तो विशेषज्ञ डाक्टरों का काम है। किसी जिले का डीसी - एसएसपी इस जन्म में यह तय करने के लिए शायद ही काबिल बन पाए। अब सवाल है कि फिर भी गरीबों की किडनियां क्यों निकलती रही हैं ? उन्हें ही जेल क्यों भेजा जाता रहा है ? अगर किडनी आपरेशन का खर्च कोई और उठा सकता है तो ऐसी व्यवस्था किसकी देन है कि आपरेशन के बाद कम से कम अगले छह महीने तक काम नहीं कर पाने वाले किडनी डोनर को मुआवजे के तौर पर कुछ दिया जाना अपराध हो जाता है। यह कानून सिर्फ किडनी लेने वालों की सुविधा के लिए बना दिखता है जिसमें डोनर के शरीर से किडनी निकालने के बाद उसे दूध से मक्खी की तरह निकाल देने की कठोर व्यवस्था है । डोनर के आपरेशन पर सामने वाला लाखों खर्च करे, तो वह ठीक है। लेकिन डोनर बाद में दवा खाने के लिए हजार रुपये भी ले ले तो गुनाहगार। वाह रे कानून ! वाह रे कानूनविद !! वाह रे कानून बनाने वाले !!! जो डाक्टर लगातार चार - पांच घंटे खड़े रहकर आपरेशन करे, जान बचाए वह कसाई है तो फिर जो कानून गरीब की सेहत छीनने के बाद रोटी के मोहताज बना दे वह .... । उसे क्या कहें ? ऐसा कानून बनाने और उसके जरिए गरीबों को सताने वालों को सजा क्यों नहीं हो ? यह जनता की सरकार है या गरीब मार है। है न गरीब मार ! बदल डालो यह कानून। जागो इंडिया जागो।
बादलों के दरमयां कुछ इस तरह साजिश हुई
मेरा घर मिट्टी का था, मेरे ही घर बारिश हुई
किडनी दान की कानूनी व्यवस्था में पैसों के लेन - देन पर सख्त सजा का प्रावधान है। दूसरी तरफ हर माह 15 से 20 हजार वेतन पाने वाला भी किडनी दान की प्रक्रिया में आपरेशन पर आने वाला डेढ़ - दो लाख का खर्च बिना लोन लिए नहीं झेल सकता। दान तो तभी न कहेंगे, जब किडनी लेने वाले को दाता (डोनर) के आपरेशन पर कोई खर्च नहीं करना पड़े। यानी आपरेशन की अनुमति देने वाली कमेटियों की मुख्य जिम्मेदारी ही यही बनती है कि वह देख ले कि डोनर की आर्थिक स्थिति ठीक है या नहीं। क्योंकि किसकी किडनी किसको लगेगी यह तो विशेषज्ञ डाक्टरों का काम है। किसी जिले का डीसी - एसएसपी इस जन्म में यह तय करने के लिए शायद ही काबिल बन पाए। अब सवाल है कि फिर भी गरीबों की किडनियां क्यों निकलती रही हैं ? उन्हें ही जेल क्यों भेजा जाता रहा है ? अगर किडनी आपरेशन का खर्च कोई और उठा सकता है तो ऐसी व्यवस्था किसकी देन है कि आपरेशन के बाद कम से कम अगले छह महीने तक काम नहीं कर पाने वाले किडनी डोनर को मुआवजे के तौर पर कुछ दिया जाना अपराध हो जाता है। यह कानून सिर्फ किडनी लेने वालों की सुविधा के लिए बना दिखता है जिसमें डोनर के शरीर से किडनी निकालने के बाद उसे दूध से मक्खी की तरह निकाल देने की कठोर व्यवस्था है । डोनर के आपरेशन पर सामने वाला लाखों खर्च करे, तो वह ठीक है। लेकिन डोनर बाद में दवा खाने के लिए हजार रुपये भी ले ले तो गुनाहगार। वाह रे कानून ! वाह रे कानूनविद !! वाह रे कानून बनाने वाले !!! जो डाक्टर लगातार चार - पांच घंटे खड़े रहकर आपरेशन करे, जान बचाए वह कसाई है तो फिर जो कानून गरीब की सेहत छीनने के बाद रोटी के मोहताज बना दे वह .... । उसे क्या कहें ? ऐसा कानून बनाने और उसके जरिए गरीबों को सताने वालों को सजा क्यों नहीं हो ? यह जनता की सरकार है या गरीब मार है। है न गरीब मार ! बदल डालो यह कानून। जागो इंडिया जागो।
Friday, October 3, 2008
Blood donation camp at Jallianwalla Bagh
Amritsar – (October 2) – Today on the occasion of birth anniversaries of Mahatma Gandhi a blood donation camp was organized at Jallianwala Bagh. Different organizations joins their hands under the aegis of `JAGO INDIA JAGO’ movement. Motivation in youth for national pride and homage to Shaheeds of Jallianwala Bagh massacre 13th April 1919 is main target. Getting the status of Freedom fighter for these shaheeds, it was effort in Gandhian mood, `Blood donation in reply of Blood –sahed.’
Members of the NGO said that blood donation camp was organized to awake the Government from deep slumber to grant the status of freedom fighter to the martyrs who were killed during the massacre of April 13, 1919 when Brigadier General Rengield Dyer did indiscriminate firing on innocent freedom fighters.
There was tremendous response came out during the blood donation camp. Sitting BJP MLA Anil Joshi along with numerous of workers appeared to donate blood. Shaheed –E-Azam Sardar Bhagat Singh youth Front (NGO) led by Gurmit Singh also turned up with dozens of people to donate blood.
Director Principal of Spring Dale School Manveen Sandhu along with her school student and teachers also donated blood. Police personnel, media persons and dozens of tourists also voluntarily offered themselves for blood donation on this occasion. President of Jallianwala Bagh Shaeed Parivar Samiti Bhusan Behal was also present on this occasion.
Director of well known NGO Manveen Sandhu told that she was also paying homage through this blood donation camp to her grand father who was the eye witness of the massacre of Jallianwalla Bagh at the age of 20 when he was a student of Khalsa College Amritsar. Latter on her grand father serve as Dist. And Session Judge in Lahor and retired from Ludhiana.
Doctors from Guru Teg Bhadur Hospital of Government Medical College managed the Blood donation camp on the request of convener D.P. Gupta, Retd. Assistant Commissioner of Municipal Corporation Amritsar and co-convener Naresh Johar. President of Indian Medical Association Dr. Amrik Singh Arora, Medical Supritendent or SGTB hospital Dr. R.P..S Boparai, Satish Bhardwaj, Ganesh Poddar are main amongst organizational support.
Saturday, September 27, 2008
समस्या क्या है - सिर्फ एक लाइन की सूचना
देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? जनसंख्या, भ्रष्टाचार, रोजगार,
अशिक्षा, गरीबी, राजनीति, नौकरशाही, लालफीताशाही या कुछ और ? इन सारे
अपराधों में शामिल लोगों में देश के लिए प्यार कहां है ? क्या मातृ भूमि
(मदर लैंड) के लिए प्यार और कर्तव्य भावना का अभाव देश की सबसे बड़ी
समस्या नहीं है ? अगर ऐसा है, तो कारण क्या है ? समाधान का रास्ता क्या
है ? पत्रकार और बुद्धिजीवी क्या कर सकते हैं ? - क्या सिर्फ बकचोदी ? या
फिर दलाली करते हुए चैनलों के मालिक बन जाने वाले। तो फिर देखना होगा,
लाला लाजपत राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांधी से लेकर शहीद भगत
सिंह तक की पत्रकार के रूप में भूमिका क्या रही। उस समय के भी बड़े
पत्रकारों की शामें वायसराय और गवर्नरों के साथ गुलजार हुआ करती थीं।
अंग्रेजों की गुलामी पूरी तरह गई नहीं कि सत्ता के दलाल अमेरिकी बाजार
में बिकने की दलाली में जुट गए हैं। इन्हीं चुनौतियों के बीच एक कारण
मिला है। देश के हर गांव - हर शहर में ऐसे ही उदाहरण हैं। उन्हें एक मंच और
आवाज दिए जाने की जरूरत है। एक हथियार मिला है। सिर्फ एक लाइन की सूचना
है - आजादी के 61 और घटना के 90 साल बाद भी जलियांवाला बाग के शहीदों को
फ्रीडम फाइटर नहीं घोषित किया गया है। - इसी में क्रांति का बीज देख रहा
हूं। खुद से सवाल है, मैं कितना जिम्मेदार हूं ? हम (देशवासी) कितने
जिम्मेदार हैं ? मां की इज्जत लुटने से बचाने के लिए शहीद होने वालों की
इज्जत नहीं करने वाले हम लोग क्या हैं ? आओ, ब्लाग को वैचारिक क्रांति के
मंच के रूप में इस्तेमाल करें। सिर्फ मन के गुबार निकालने के मंच के रूप में नहीं। जाति, संप्रदाय, धर्म, दक्षिण (राइटिस्ट),
वाम (लेफिटिस्ट) जैसे वादों से उठकर राष्ट्रवाद का अलख जगाने के प्रयास
में जुट जाएं ताकि प्रतिभाओं को अमेरिका भगाना न पड़े और सत्ता के दलाल
देश को अमेरिका के हाथों में बेच न डालें। इस माटी से प्यार जग गया तो गुमराह नौजवान भी धमाका-दर-धमाका कर दहशतगर्दी के रास्ते पर भटकते नहीं नजर आएंगे।
अशिक्षा, गरीबी, राजनीति, नौकरशाही, लालफीताशाही या कुछ और ? इन सारे
अपराधों में शामिल लोगों में देश के लिए प्यार कहां है ? क्या मातृ भूमि
(मदर लैंड) के लिए प्यार और कर्तव्य भावना का अभाव देश की सबसे बड़ी
समस्या नहीं है ? अगर ऐसा है, तो कारण क्या है ? समाधान का रास्ता क्या
है ? पत्रकार और बुद्धिजीवी क्या कर सकते हैं ? - क्या सिर्फ बकचोदी ? या
फिर दलाली करते हुए चैनलों के मालिक बन जाने वाले। तो फिर देखना होगा,
लाला लाजपत राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांधी से लेकर शहीद भगत
सिंह तक की पत्रकार के रूप में भूमिका क्या रही। उस समय के भी बड़े
पत्रकारों की शामें वायसराय और गवर्नरों के साथ गुलजार हुआ करती थीं।
अंग्रेजों की गुलामी पूरी तरह गई नहीं कि सत्ता के दलाल अमेरिकी बाजार
में बिकने की दलाली में जुट गए हैं। इन्हीं चुनौतियों के बीच एक कारण
मिला है। देश के हर गांव - हर शहर में ऐसे ही उदाहरण हैं। उन्हें एक मंच और
आवाज दिए जाने की जरूरत है। एक हथियार मिला है। सिर्फ एक लाइन की सूचना
है - आजादी के 61 और घटना के 90 साल बाद भी जलियांवाला बाग के शहीदों को
फ्रीडम फाइटर नहीं घोषित किया गया है। - इसी में क्रांति का बीज देख रहा
हूं। खुद से सवाल है, मैं कितना जिम्मेदार हूं ? हम (देशवासी) कितने
जिम्मेदार हैं ? मां की इज्जत लुटने से बचाने के लिए शहीद होने वालों की
इज्जत नहीं करने वाले हम लोग क्या हैं ? आओ, ब्लाग को वैचारिक क्रांति के
मंच के रूप में इस्तेमाल करें। सिर्फ मन के गुबार निकालने के मंच के रूप में नहीं। जाति, संप्रदाय, धर्म, दक्षिण (राइटिस्ट),
वाम (लेफिटिस्ट) जैसे वादों से उठकर राष्ट्रवाद का अलख जगाने के प्रयास
में जुट जाएं ताकि प्रतिभाओं को अमेरिका भगाना न पड़े और सत्ता के दलाल
देश को अमेरिका के हाथों में बेच न डालें। इस माटी से प्यार जग गया तो गुमराह नौजवान भी धमाका-दर-धमाका कर दहशतगर्दी के रास्ते पर भटकते नहीं नजर आएंगे।
कौशल के विचार
प्रिय सतीश,
बधाई हो।
तुम्हारा ब्लाग खुला। देखा। काफी अच्छा लगा। मस्ट हेड शानदार बन पड़ा है। लेख लंबे हो रहे हैं, पर विचार उभर रहा है। सब्जेक्ट को अलग-अलग विभाजित कर लिखने की जरूरत होगी। आइटम पर कमेंट भेजने की प्रक्रिया थोड़ी कठिन जान पड़ती है। इसे ठीक करना होगा।
प्रक्रिया सरल बनानी ही होगी। इसके साथ ही यह भी व्यवस्था करनी होगी कि कमेंट्स आइटम के जस्ट नीचे ओपन हों। इससे कमेंट्स भेजने वाले कविता-कहानी या अपने विचार भी आइटम के जस्ट नीचे देखकर उत्साहित हो सकेंगे। फिलहाल, तुम्हारा प्रयास सराहनीय है। मैं उम्मीद कर रहा था कि इस पर तुम्हारा नाम और फोटो भी देखने को मिलेगा।
तुम्हारा ही
कौशल।
बधाई हो।
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तुम्हारा ही
कौशल।
Thursday, September 25, 2008
सिर के बल खड़ी व्यवस्था
सिर के बल खड़ी व्यवस्था
कोई भी व्यवस्था बाशिंदों के आम हितों का पोषण और संरक्षण करने के उद्देश्य से ही स्थापित होती है। चाहे वह जंगल का कानून हो या सभ्य मानव समाज का। अगर इन बातों में दम है तो वर्तमान भारतीय व्यवस्था पर भी गौर करना पड़ेगा। सब कुछ सिर के बल नजर आने लगेगा। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो टॉप पर वह बैठे हैं, जिन्हें कभी गली के चौराहों पर ही जगह मिलती थी। बचपन में इलाके और मोहल्ले के बुजुर्ग जिन बच्चों को पढ़ने - लिखने वाला, समझदार, बुद्धिमान, ईमानदार कहते थे, आज सत्ता के बाजार वाली व्यवस्था में उनकी कहीं पूछ नहीं। जिन्होंने मारपीट की, लफंगा घोषित कर दिए गए, कोई नौकरी नहीं मिली, बदली परिस्थितियों में मालिक बन गए। प्रतिभावानों में भी सिर्फ वही टॉप पर पहुंचने के काबिल बन पाए जिन्होंने मक्कारी या चापलूसी में से एक को अपना लिया। दिमाग पहले से तेज था ही, पहले किंगमेकर की भूमिका निभाई और फिर किंग बन गए। सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए।
बातें कुछ अटपटी सी हैं। सीधे समझ भी नहीं आती। लेकिन यही हकीकत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगल बगल झांकने पर सबकुछ साफ हो जाता है। जो नहीं पढ़ सके, नेता बन सरकार चला रहे हैं। दूसरी तरफ डाक्टर और इंजीनियर हैं। यह या तो अमेरिका, यूरोप और जापान भाग रहे हैं या फिर मैनेजर बनने की जुगाड़ में लगे हैं।
तभी तो बाबा आदम के जमाने के दूसरा भगवान कहा जाने वाला डाक्टर और वैद्य अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं ला रहा। पुरानी अवधारणा तेजी से बदल रही है। कार्पोरेट कल्चर के साथ नए भगवान उभरे हैं। नाम मिला है मैनेजर और काम मिला है विशेषज्ञों की विशेषज्ञता ( एक्सपर्ट आफ एक्सपर्टीज) का। पिछली सदी के अस्सी व नब्बे के दशक में डाक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद टेक्नोक्रेटों में विदेश भाग जाने या फिर आईएएस \ आईपीएस (भारतीय प्रशासनिक सेवाओं) बन जाने की होड़ लगी थी। अब उन्हीं इंजीनियरों - डाक्टरों के साथ-साथ आईएएस \ आईपीएस भी एमबीए की डिग्री लेकर कार्पोरेट का हिस्सा बन रहे हैं। यही है काल चक्र। लेकिन सत्य वहीं खड़ा है। सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के हाथों में जीवन में धुरी है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नए अवतार मैनेजर्स हैं जिनकी पलकों के झपकने से पूरी धरती हिलने लगती है। सामानों की कीमतें बढ़ और घट जाती हैं। गरीबी और भुखमरी पर चर्चा कभी आउट डेटेड विषय हो जाते हैं तो कभी जीवंत। समझने - समझाने की ज्यादा जरूरत नहीं कि लोकतंत्र के नए मालिक कौन हैं। सरकार उसी की बनेगी जिसे भगवान के नव अवतार चाहेंगे। सरकारी सेहत व्यवस्था बिना दवाई और डाक्टर की ओर बढ़ गई है। किसी को भी यह सोचकर भयभीत होने की छूट दी जा सकती है कि वह सोचे कि तब क्या होगा जब डाक्टर सिर्फ कार्पोरेट अस्पतालों में होंगे।
इनमें दो राय नहीं कि काल के चक्र में कर्म की प्रतिष्ठा भी उपर-नीचे घूमती है। सामाजिक ताने-बाने को गणित के आंकड़ों के साथ समझ पाना कभी आसान भी नहीं रहा। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में कभी श्रेष्ठ जन माने जाने वाले पंडितों की प्रतिष्ठा कुछ ऐसी ही थी। इन्हीं में से कोई वेदों का ज्ञाता था तो कोई वैद्य था। इनके दर्शन और ज्ञान के भंडार का पूरा समाज सम्मान करता था। संभव है एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान भंडार सिमट जाने के कारण `पंडित ' शब्द की प्रतिष्ठा गिर गई हो। यह बातें ब्रह्मज्ञानी रहे ब्राह्मण परिवारों की `समाजवादी' दृष्टि वाली नई पीढ़ी से भी सुनी जा सकती है। वह भी अपनी जाति पर समाज के अन्य वर्गों व जातियों के साथ अत्याचार करने के आरोप कई-कई उदाहरणों के साथ लगाते हैं।
समाज की चिंता का मुख्य विषय किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष के हितों की रक्षा होना या नहीं होना, नहीं हो सकता। प्रतिभाओं का संरक्षक नहीं हो पाना और उनका भटकाव समाज के लिए चुनौतीपूर्ण मुद्दा जरूर होना चाहिए। खूंखार अपराधियों के दिमागी परीक्षण में भी यह खुलासे हुए हैं कि उनकी प्रतिभा का समाज हित में उपयोग काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता था। सभ्य समाज में कोई व्यवस्था, चाहे वह लोकतांत्रिक हो या राजशाही, आदर्श उद्देश्य प्रतिभा का सम्मान ही होना चाहिए। वर्तमान दौर कर्म की प्रतिष्ठा परिवर्तन का दौर बना है। कुछ जगहों पर नजर भी आ रहा है कि कार्पोरेट की नई उभरती दुनिया में वही श्रेष्ठ है जिसकी तरफ पैसा पानी की तरह बहता हो। इस कड़ी में यह कहना थोड़ा तल्ख होगा कि जो बिना जबावदेही के प्रतिमाह लाखों से करोड़ों की आमदनी की ओर बढ़ गया, वही सर्वश्रेष्ठ हैं। शेयर बाजार घुलटनिया खा जाए (लुढ़क जाए) तो बड़े खिलाड़ियों का कोई दोष नहीं। वह इतना कमा चुके होते हैं कि विश्व के धनाड्यों में ही शामिल रहेंगे। गुनाह तो उन छोटे निवेशकों, दुकानदारों, कारोबारियों और उद्यमियों का है, जो लालची बन गए। सही कहें तो लालची बना दिया गया। उद्योग - कारोबार बंद कर पैसे शेयर में लगा दिए। अब कर्जदार बन गए हैं।
अब मूल मुद्दे पर चर्चा जरा विस्तार से। दो से ढाई दशक पहले तक दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद जिन विद्यार्थियों को मेडिकल (जीव विज्ञान) और नान मेडिकल (गणित) की पढ़ाई का मौका नहीं मिलता था, सामान्यत: वही कामर्स से प्लस टू करते थे। आमतौर पर जो विद्यार्थी ज्यादा कमजोर होते थे, वही आट्रर्स की पढ़ाई करते थे। माता-पिता अपने प्रतिभावान बच्चों को डाक्टर और इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। सालों बाद भी मेडिकल कालेजों की संख्या में बहुत इजाफा नहीं हो सका है। सेहत सुविधाओं को हर आदमी तक पहुंचाने के लिए डाक्टरों की संख्या आज भी कम है। इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ी है। कंप्यूटर और कम्युनिकेशन सहित अन्य नए रास्ते भी विस्तारित हुए हैं। लेकिन वक्त, चाहत और प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। सिर्फ समाज के लिए जीना अब किसी सिद्धांत में नहीं आता। अब तो समाज सेवा भी पेशा है। एनजीओ बनाओ, खूब कमाओ।
बात को दशक पहले तक प्रतिभा के आधार पर पेशे की तरफ केंद्रित किया जाए तो विज्ञान के विद्यार्थियों को समाज में प्रतिभावान माना जाता था। प्लस टू या हायर सेकेंडरी में मेडिकल और नान मेडिकल छात्रों की संख्या लगभग बराबर होती थी। लेकिन डाक्टरी की सीटें कई गुना कम होने के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज का सबसे प्रतिभाशाली हिस्सा सरकारी मेडिकल कालेजों से डाक्टर या फिर आईआईटी जैसी प्रतिष्ठा संस्थाओं से इंजीनियर बनकर पेशेवर जीवन की शुरूआत करता था। तीसरे स्थान पर उन प्रतिभाओं को रखा जा सकता है जो उच्च शिक्षा और शोध ( रिसर्च) का लक्षय कर पढ़ाई आगे बढ़ाते और सफलता पाते हैं। प्लस टू के बाद देश व प्रदेश स्तर पर आयोजित होने वाले एनडीए (नैशनल डिफेंस एकेडमी) या घर की स्थिति अच्छी न होने के कारण प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हो अन्य सरकारी नौकरियों में चुने जाते थे। इन्हीं के साथ प्रतिभा के चौथे स्थान पर मजबूर पारिवारिक आर्थिक स्थिति वाली प्रतिभाओं को सम्मान दिया जा सकता है जिन्होंने कारोबार को विस्तार दिया। औद्योगिक क्रांति में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद राष्ट्रीय व प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं की बारी आती है। इसमें चयनित होने वाली प्रतिभाओं में ट्रिक्स का खेल काफी दिनों चलता रहा जिसमें संस्कृत, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन या समाज शास्त्र जैसे विषय लेकर कार्यपालिका की शीर्ष व्यवस्था तैयार होती रही। डाक्टरों और इंजीनियरिंगों को भी इस बात का अहसास हुआ कि उनके हुकमरान प्रतिभा के मामले में किस स्तर पर हैं। देश की श्रेष्ठ मेडिकल व इंजीनियरिंग प्रतिभाओं ने लगातार कई कई सालों तक यूपीएससी ( यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन) की परीक्षाओं में टॉप पोजिशनें हासिल कर इस तथ्य को स्थापित किया तथा कार्यपालिका पर कब्जा करते रहे। अपवादों को छोड़ प्रतिभा व्यवस्था में सामान्य रूप से छठे स्थान पर वह हैं जिनकी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते-करते उम्र निकलने लगी। लॉ कालेज में दाखिला ले लिया। कानून की पढ़ाई पूरी कर न्यायपालिका के प्रतिनिधि बन गए। इसके आगे कानून के वह माहिर विद्यार्थी रहे जो दिल्ली के चांदनी चौक, लखनऊ के हजरतगंज और पटना के गांधी मैदान के आसपास के चौक चौराहों से फुर्सत नहीं निकाल सके। चाकू गाढ़कर डिग्री हासिल की और नेता बन गए। नजरें जरा गौर से घुमाने की जरूरत है। ऐसी कई हस्तियां उभर कर सामने आ जाती हैं। यह है लोकतांत्रिक भारत के सिरमौर विधायिका के प्रतिनिधि।
यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका सर्वश्रेष्ठ है। विधायिका कानून बनाती हैं और न्यायपालिक उसके आधार पर फैसले सुनाती है। कार्यपालिका उसका पालन करती है। जैसे एक बार संसंद से यह कानून पास हो जाए कि विरासत केंद्रों (हेरिटेज सेंटरों) से 100 गज की दूरी के अंदर कोई निमार्ण नहीं कराया जा सकता, तो आर्कोलॉजिक सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) उसका पालन करेगी। इससे आगरा में ताजमहल के आसपास के निमार्ण वैध हो गए। भले ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को पिछली बार सत्ता में रहते हुए उक्त अनुमति देने के लिए कानूनी कठघरे में खड़ा किया हो। यही है मैनेजमेंट! लंबी सोच । दूर दष्टि। अब प्राइवेट पार्टियों और प्रोपटी डीलरों के सामने पुलिस क्या कर लेगी? यह काम कोई डाक्टर या इंजीनियरिंग तो कर ही नहीं सकता। यह तो पीपीपी का एक नया फार्मूला है जिसमें एक और पी जुड़ गया है। यह पब्लिक - प्राइवेट पार्टिसिपेशन का उभरता समीकरण है। देश के हर कोने में लोकल स्तर की राजनीति में परिवर्तन है। पार्षद और विधायक बनकर कानून को संचालित करने - कराने में जमीन - जायदीद खरीदने और बेचने का धंधा करने वालों ( प्रोपर्टी डीलरों) की बढ़ती संख्या पर नजर डालने की जरूरत है। कार्पोरेट और माल कल्चर में लोकतंत्र की बदलती तस्वीर सामने आने लगती है। कई बार लोकतंत्र पूंजी का खेल लगने लगता है। समाज का, समाज के लिए और समाज के द्वारा का सिद्धांत कहीं छूट गया है। अब तो कार्पोरेट मैनेजर ही युवा लक्ष्य है। वह कार्पोरेट, जिसके हाथ में किसी देश की सत्ता पर सरकारों को कबिज कराने और हटाने की चाबी है। सुपर पावर अमेरिकी का भी तो यही राज है, जहां सिर्फ कानून - व्यवस्था संभालना ही सरकार का काम बच गया है। बाकी सबकुछ कार्पोरेट जगत के हाथ में है। भारतीय परिदृश्य में नए परिवर्तन भी कुछ ऐसे ही संदेश देने लगे हैं। इस सभी परिवर्तनों के बीच प्रतिभा के पेशागत पलायन से जुड़े प्रतिमानों पर चिंतन करने की जरूरत है। डाक्टर बनकर गरीबों के इलाज की सोचना तथा इंजीनियर बनकर देश की उर्जा समस्या का समाधान नई पीढ़ी की चुनौती नहीं है।
कोई भी व्यवस्था बाशिंदों के आम हितों का पोषण और संरक्षण करने के उद्देश्य से ही स्थापित होती है। चाहे वह जंगल का कानून हो या सभ्य मानव समाज का। अगर इन बातों में दम है तो वर्तमान भारतीय व्यवस्था पर भी गौर करना पड़ेगा। सब कुछ सिर के बल नजर आने लगेगा। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो टॉप पर वह बैठे हैं, जिन्हें कभी गली के चौराहों पर ही जगह मिलती थी। बचपन में इलाके और मोहल्ले के बुजुर्ग जिन बच्चों को पढ़ने - लिखने वाला, समझदार, बुद्धिमान, ईमानदार कहते थे, आज सत्ता के बाजार वाली व्यवस्था में उनकी कहीं पूछ नहीं। जिन्होंने मारपीट की, लफंगा घोषित कर दिए गए, कोई नौकरी नहीं मिली, बदली परिस्थितियों में मालिक बन गए। प्रतिभावानों में भी सिर्फ वही टॉप पर पहुंचने के काबिल बन पाए जिन्होंने मक्कारी या चापलूसी में से एक को अपना लिया। दिमाग पहले से तेज था ही, पहले किंगमेकर की भूमिका निभाई और फिर किंग बन गए। सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए।
बातें कुछ अटपटी सी हैं। सीधे समझ भी नहीं आती। लेकिन यही हकीकत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगल बगल झांकने पर सबकुछ साफ हो जाता है। जो नहीं पढ़ सके, नेता बन सरकार चला रहे हैं। दूसरी तरफ डाक्टर और इंजीनियर हैं। यह या तो अमेरिका, यूरोप और जापान भाग रहे हैं या फिर मैनेजर बनने की जुगाड़ में लगे हैं।
तभी तो बाबा आदम के जमाने के दूसरा भगवान कहा जाने वाला डाक्टर और वैद्य अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं ला रहा। पुरानी अवधारणा तेजी से बदल रही है। कार्पोरेट कल्चर के साथ नए भगवान उभरे हैं। नाम मिला है मैनेजर और काम मिला है विशेषज्ञों की विशेषज्ञता ( एक्सपर्ट आफ एक्सपर्टीज) का। पिछली सदी के अस्सी व नब्बे के दशक में डाक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद टेक्नोक्रेटों में विदेश भाग जाने या फिर आईएएस \ आईपीएस (भारतीय प्रशासनिक सेवाओं) बन जाने की होड़ लगी थी। अब उन्हीं इंजीनियरों - डाक्टरों के साथ-साथ आईएएस \ आईपीएस भी एमबीए की डिग्री लेकर कार्पोरेट का हिस्सा बन रहे हैं। यही है काल चक्र। लेकिन सत्य वहीं खड़ा है। सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के हाथों में जीवन में धुरी है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नए अवतार मैनेजर्स हैं जिनकी पलकों के झपकने से पूरी धरती हिलने लगती है। सामानों की कीमतें बढ़ और घट जाती हैं। गरीबी और भुखमरी पर चर्चा कभी आउट डेटेड विषय हो जाते हैं तो कभी जीवंत। समझने - समझाने की ज्यादा जरूरत नहीं कि लोकतंत्र के नए मालिक कौन हैं। सरकार उसी की बनेगी जिसे भगवान के नव अवतार चाहेंगे। सरकारी सेहत व्यवस्था बिना दवाई और डाक्टर की ओर बढ़ गई है। किसी को भी यह सोचकर भयभीत होने की छूट दी जा सकती है कि वह सोचे कि तब क्या होगा जब डाक्टर सिर्फ कार्पोरेट अस्पतालों में होंगे।
इनमें दो राय नहीं कि काल के चक्र में कर्म की प्रतिष्ठा भी उपर-नीचे घूमती है। सामाजिक ताने-बाने को गणित के आंकड़ों के साथ समझ पाना कभी आसान भी नहीं रहा। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में कभी श्रेष्ठ जन माने जाने वाले पंडितों की प्रतिष्ठा कुछ ऐसी ही थी। इन्हीं में से कोई वेदों का ज्ञाता था तो कोई वैद्य था। इनके दर्शन और ज्ञान के भंडार का पूरा समाज सम्मान करता था। संभव है एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान भंडार सिमट जाने के कारण `पंडित ' शब्द की प्रतिष्ठा गिर गई हो। यह बातें ब्रह्मज्ञानी रहे ब्राह्मण परिवारों की `समाजवादी' दृष्टि वाली नई पीढ़ी से भी सुनी जा सकती है। वह भी अपनी जाति पर समाज के अन्य वर्गों व जातियों के साथ अत्याचार करने के आरोप कई-कई उदाहरणों के साथ लगाते हैं।
समाज की चिंता का मुख्य विषय किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष के हितों की रक्षा होना या नहीं होना, नहीं हो सकता। प्रतिभाओं का संरक्षक नहीं हो पाना और उनका भटकाव समाज के लिए चुनौतीपूर्ण मुद्दा जरूर होना चाहिए। खूंखार अपराधियों के दिमागी परीक्षण में भी यह खुलासे हुए हैं कि उनकी प्रतिभा का समाज हित में उपयोग काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता था। सभ्य समाज में कोई व्यवस्था, चाहे वह लोकतांत्रिक हो या राजशाही, आदर्श उद्देश्य प्रतिभा का सम्मान ही होना चाहिए। वर्तमान दौर कर्म की प्रतिष्ठा परिवर्तन का दौर बना है। कुछ जगहों पर नजर भी आ रहा है कि कार्पोरेट की नई उभरती दुनिया में वही श्रेष्ठ है जिसकी तरफ पैसा पानी की तरह बहता हो। इस कड़ी में यह कहना थोड़ा तल्ख होगा कि जो बिना जबावदेही के प्रतिमाह लाखों से करोड़ों की आमदनी की ओर बढ़ गया, वही सर्वश्रेष्ठ हैं। शेयर बाजार घुलटनिया खा जाए (लुढ़क जाए) तो बड़े खिलाड़ियों का कोई दोष नहीं। वह इतना कमा चुके होते हैं कि विश्व के धनाड्यों में ही शामिल रहेंगे। गुनाह तो उन छोटे निवेशकों, दुकानदारों, कारोबारियों और उद्यमियों का है, जो लालची बन गए। सही कहें तो लालची बना दिया गया। उद्योग - कारोबार बंद कर पैसे शेयर में लगा दिए। अब कर्जदार बन गए हैं।
अब मूल मुद्दे पर चर्चा जरा विस्तार से। दो से ढाई दशक पहले तक दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद जिन विद्यार्थियों को मेडिकल (जीव विज्ञान) और नान मेडिकल (गणित) की पढ़ाई का मौका नहीं मिलता था, सामान्यत: वही कामर्स से प्लस टू करते थे। आमतौर पर जो विद्यार्थी ज्यादा कमजोर होते थे, वही आट्रर्स की पढ़ाई करते थे। माता-पिता अपने प्रतिभावान बच्चों को डाक्टर और इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। सालों बाद भी मेडिकल कालेजों की संख्या में बहुत इजाफा नहीं हो सका है। सेहत सुविधाओं को हर आदमी तक पहुंचाने के लिए डाक्टरों की संख्या आज भी कम है। इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ी है। कंप्यूटर और कम्युनिकेशन सहित अन्य नए रास्ते भी विस्तारित हुए हैं। लेकिन वक्त, चाहत और प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। सिर्फ समाज के लिए जीना अब किसी सिद्धांत में नहीं आता। अब तो समाज सेवा भी पेशा है। एनजीओ बनाओ, खूब कमाओ।
बात को दशक पहले तक प्रतिभा के आधार पर पेशे की तरफ केंद्रित किया जाए तो विज्ञान के विद्यार्थियों को समाज में प्रतिभावान माना जाता था। प्लस टू या हायर सेकेंडरी में मेडिकल और नान मेडिकल छात्रों की संख्या लगभग बराबर होती थी। लेकिन डाक्टरी की सीटें कई गुना कम होने के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज का सबसे प्रतिभाशाली हिस्सा सरकारी मेडिकल कालेजों से डाक्टर या फिर आईआईटी जैसी प्रतिष्ठा संस्थाओं से इंजीनियर बनकर पेशेवर जीवन की शुरूआत करता था। तीसरे स्थान पर उन प्रतिभाओं को रखा जा सकता है जो उच्च शिक्षा और शोध ( रिसर्च) का लक्षय कर पढ़ाई आगे बढ़ाते और सफलता पाते हैं। प्लस टू के बाद देश व प्रदेश स्तर पर आयोजित होने वाले एनडीए (नैशनल डिफेंस एकेडमी) या घर की स्थिति अच्छी न होने के कारण प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हो अन्य सरकारी नौकरियों में चुने जाते थे। इन्हीं के साथ प्रतिभा के चौथे स्थान पर मजबूर पारिवारिक आर्थिक स्थिति वाली प्रतिभाओं को सम्मान दिया जा सकता है जिन्होंने कारोबार को विस्तार दिया। औद्योगिक क्रांति में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद राष्ट्रीय व प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं की बारी आती है। इसमें चयनित होने वाली प्रतिभाओं में ट्रिक्स का खेल काफी दिनों चलता रहा जिसमें संस्कृत, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन या समाज शास्त्र जैसे विषय लेकर कार्यपालिका की शीर्ष व्यवस्था तैयार होती रही। डाक्टरों और इंजीनियरिंगों को भी इस बात का अहसास हुआ कि उनके हुकमरान प्रतिभा के मामले में किस स्तर पर हैं। देश की श्रेष्ठ मेडिकल व इंजीनियरिंग प्रतिभाओं ने लगातार कई कई सालों तक यूपीएससी ( यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन) की परीक्षाओं में टॉप पोजिशनें हासिल कर इस तथ्य को स्थापित किया तथा कार्यपालिका पर कब्जा करते रहे। अपवादों को छोड़ प्रतिभा व्यवस्था में सामान्य रूप से छठे स्थान पर वह हैं जिनकी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते-करते उम्र निकलने लगी। लॉ कालेज में दाखिला ले लिया। कानून की पढ़ाई पूरी कर न्यायपालिका के प्रतिनिधि बन गए। इसके आगे कानून के वह माहिर विद्यार्थी रहे जो दिल्ली के चांदनी चौक, लखनऊ के हजरतगंज और पटना के गांधी मैदान के आसपास के चौक चौराहों से फुर्सत नहीं निकाल सके। चाकू गाढ़कर डिग्री हासिल की और नेता बन गए। नजरें जरा गौर से घुमाने की जरूरत है। ऐसी कई हस्तियां उभर कर सामने आ जाती हैं। यह है लोकतांत्रिक भारत के सिरमौर विधायिका के प्रतिनिधि।
यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका सर्वश्रेष्ठ है। विधायिका कानून बनाती हैं और न्यायपालिक उसके आधार पर फैसले सुनाती है। कार्यपालिका उसका पालन करती है। जैसे एक बार संसंद से यह कानून पास हो जाए कि विरासत केंद्रों (हेरिटेज सेंटरों) से 100 गज की दूरी के अंदर कोई निमार्ण नहीं कराया जा सकता, तो आर्कोलॉजिक सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) उसका पालन करेगी। इससे आगरा में ताजमहल के आसपास के निमार्ण वैध हो गए। भले ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को पिछली बार सत्ता में रहते हुए उक्त अनुमति देने के लिए कानूनी कठघरे में खड़ा किया हो। यही है मैनेजमेंट! लंबी सोच । दूर दष्टि। अब प्राइवेट पार्टियों और प्रोपटी डीलरों के सामने पुलिस क्या कर लेगी? यह काम कोई डाक्टर या इंजीनियरिंग तो कर ही नहीं सकता। यह तो पीपीपी का एक नया फार्मूला है जिसमें एक और पी जुड़ गया है। यह पब्लिक - प्राइवेट पार्टिसिपेशन का उभरता समीकरण है। देश के हर कोने में लोकल स्तर की राजनीति में परिवर्तन है। पार्षद और विधायक बनकर कानून को संचालित करने - कराने में जमीन - जायदीद खरीदने और बेचने का धंधा करने वालों ( प्रोपर्टी डीलरों) की बढ़ती संख्या पर नजर डालने की जरूरत है। कार्पोरेट और माल कल्चर में लोकतंत्र की बदलती तस्वीर सामने आने लगती है। कई बार लोकतंत्र पूंजी का खेल लगने लगता है। समाज का, समाज के लिए और समाज के द्वारा का सिद्धांत कहीं छूट गया है। अब तो कार्पोरेट मैनेजर ही युवा लक्ष्य है। वह कार्पोरेट, जिसके हाथ में किसी देश की सत्ता पर सरकारों को कबिज कराने और हटाने की चाबी है। सुपर पावर अमेरिकी का भी तो यही राज है, जहां सिर्फ कानून - व्यवस्था संभालना ही सरकार का काम बच गया है। बाकी सबकुछ कार्पोरेट जगत के हाथ में है। भारतीय परिदृश्य में नए परिवर्तन भी कुछ ऐसे ही संदेश देने लगे हैं। इस सभी परिवर्तनों के बीच प्रतिभा के पेशागत पलायन से जुड़े प्रतिमानों पर चिंतन करने की जरूरत है। डाक्टर बनकर गरीबों के इलाज की सोचना तथा इंजीनियर बनकर देश की उर्जा समस्या का समाधान नई पीढ़ी की चुनौती नहीं है।
Tuesday, September 23, 2008
जागो इंडिया जागो
रामायण के विशिष्ट पात्र कुंभकरण को याद करते हुए जागो इंडिया जागो की शुरुआत करते है जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 की घटना इसका आधार है। आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार आज भी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती। क्या आंखों और दिमाग को विश्वास नहीं हो रहा ? लेकिन यही सच्चाई है। प्रमाण उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसा क्यों है ? यही तो सवाल खुद से है। देशवासियों से है। ऐसा क्यों ? अंग्रेजों की गोलियों से भूने गए लोगों को पूरा देश शहीद मानता है। स्वतंत्रता सेनानी (फ्रीडम फाइटर) स्वीकारता है। फिर भी वह सरकारी तौर पर आज तक फ्रीडम फाइटर नहीं है। ऐसा क्यों? इस मुद्दे के जरिए देश की जागृति के लिए है अभियान - जागो इंडिया जागो।
जी हां। हम खुद जगने की कोशिश में है। एक - दूसरे के सहारे जगाए जाने का भरोसा लगाए बैठे हैं। जगने और जगाने का सामूहिक प्रयास शुरु होना उद्देश्य है। महाबली कुंभकरण के बारे में प्रसिद्ध है कि वह छह महीने सोते थे। हम भी पिछले 61 सालों से सोए पड़े हैं। अंग्रेजों से आजादी मिले इतने दिन गुजर चुके हैं। फिर भी जलियांवाला बाग के शहीद सरकारी तौर पर फ्रीडम फाइटर नहीं हैं तो जवाबदेह कौन है? क्या सिर्फ नेता? क्या सिर्फ नौकरशाह? हमारी कोई जवाबदेही नहीं है? शहीदों को अगर सम्मान का दर्जा नहीं मिला है तो हर हिंदुस्तानी जवाबदेह है। यही है विषय जगने और जगाने का। देश इस मुद्दे पर क्यों सो गया? मानो आजादी मिल गई और हम हसीन सपनों में खो गए। यह सबसे खतरनाक है। सोए हुए को जगाया जा सकता है। लेकिन जो जागते हुए सोए, सोने का नाटक करे, महटियाए, उसको जगाना हमेशा नामुमकिन रहा है। है न ! इसलिए लिखा, जगना और जगाना है। अगर सभी मिल जुलकर एक - दूसरे को जगाएंगे तो शायद जग जाएं। समीक्षा कर पाएं कि क्यों पिछले 60 सालों से जागते हुए सो रहा है अपना देश। जलियांवाला बाग तो सिर्फ एक बहाना है। आजादी की लड़ाई में 30 लाख साधु संतो और 10 लाख से अधिक फकीरों ने कुर्बानी दी। स्कूली इतिहास के पन्नों में कहीं इसका उल्लेख नहीं मिलता। नेतागिरी और नौकरशाही के चक्कर में देश का आत्मसम्मान नहीं जगा सके। देश जीवंत नहीं हो सका। इसलिए जरुरी है जगना और जगाना। यह काम कोई एक नहीं कर सकता। किसी एक के बस की बात भी नहीं है। डर है कि कहीं कुंभकरण जैसी नींद के कारण महाबली होते हुए भी देश का अंत न हो जाए। पतन न हो जाए। जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ आदि के नाम पर पूरा देश बंट गया है। हर व्यक्ति बाजार में अकेला खड़ा है। सूई से लेकर पहाड़ तक भ्रष्टाचारियों के कब्जे में है। सबकुछ ठेके पर जा रहा है। रोड, सीवरेज, सेहत, शिक्षा, सबकुछ। हरेक चीज की बोली लग रही है। दलाली हो रही है। अरबों के ठेके में करोड़ों के कमिशनखोरी। सब जायज बनता जा रहा है। बचाव का रास्ता सिर्फ देश के प्रति जागरुक जनता ही तैयार कर सकती है। इसलिए जरूरी है कि जागो और जगाओ। जागो इंडिया जागो।
जी हां। हम खुद जगने की कोशिश में है। एक - दूसरे के सहारे जगाए जाने का भरोसा लगाए बैठे हैं। जगने और जगाने का सामूहिक प्रयास शुरु होना उद्देश्य है। महाबली कुंभकरण के बारे में प्रसिद्ध है कि वह छह महीने सोते थे। हम भी पिछले 61 सालों से सोए पड़े हैं। अंग्रेजों से आजादी मिले इतने दिन गुजर चुके हैं। फिर भी जलियांवाला बाग के शहीद सरकारी तौर पर फ्रीडम फाइटर नहीं हैं तो जवाबदेह कौन है? क्या सिर्फ नेता? क्या सिर्फ नौकरशाह? हमारी कोई जवाबदेही नहीं है? शहीदों को अगर सम्मान का दर्जा नहीं मिला है तो हर हिंदुस्तानी जवाबदेह है। यही है विषय जगने और जगाने का। देश इस मुद्दे पर क्यों सो गया? मानो आजादी मिल गई और हम हसीन सपनों में खो गए। यह सबसे खतरनाक है। सोए हुए को जगाया जा सकता है। लेकिन जो जागते हुए सोए, सोने का नाटक करे, महटियाए, उसको जगाना हमेशा नामुमकिन रहा है। है न ! इसलिए लिखा, जगना और जगाना है। अगर सभी मिल जुलकर एक - दूसरे को जगाएंगे तो शायद जग जाएं। समीक्षा कर पाएं कि क्यों पिछले 60 सालों से जागते हुए सो रहा है अपना देश। जलियांवाला बाग तो सिर्फ एक बहाना है। आजादी की लड़ाई में 30 लाख साधु संतो और 10 लाख से अधिक फकीरों ने कुर्बानी दी। स्कूली इतिहास के पन्नों में कहीं इसका उल्लेख नहीं मिलता। नेतागिरी और नौकरशाही के चक्कर में देश का आत्मसम्मान नहीं जगा सके। देश जीवंत नहीं हो सका। इसलिए जरुरी है जगना और जगाना। यह काम कोई एक नहीं कर सकता। किसी एक के बस की बात भी नहीं है। डर है कि कहीं कुंभकरण जैसी नींद के कारण महाबली होते हुए भी देश का अंत न हो जाए। पतन न हो जाए। जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ आदि के नाम पर पूरा देश बंट गया है। हर व्यक्ति बाजार में अकेला खड़ा है। सूई से लेकर पहाड़ तक भ्रष्टाचारियों के कब्जे में है। सबकुछ ठेके पर जा रहा है। रोड, सीवरेज, सेहत, शिक्षा, सबकुछ। हरेक चीज की बोली लग रही है। दलाली हो रही है। अरबों के ठेके में करोड़ों के कमिशनखोरी। सब जायज बनता जा रहा है। बचाव का रास्ता सिर्फ देश के प्रति जागरुक जनता ही तैयार कर सकती है। इसलिए जरूरी है कि जागो और जगाओ। जागो इंडिया जागो।
Monday, September 22, 2008
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