Saturday, April 18, 2020

देखते-देखते बदल गया व्यवहार

देखते-देखते बदल गया व्यवहार

कोरोना ने लोगों का व्यवहार बदलना शुरू कर दिया है। घर के अंदर और बाहर की स्थितियों पर सभी अपने-अपने स्तर से चिंतन में लगे हैं। कुछ लोगों के फलते-फूलते व्यापार को ब्रेक लग गया है तो एकाध लोगों का चल भी निकला है। यथा सैनेटाइजर और मास्क का काम देखते ही देखते नंबर वन काम हो गया है। इसी तरह फल, सब्जी और बेकरी के कारोबार में भी बड़ा बदलाव दिख रहा है। तब्लीगियों ने खौफ पैदा कर दिया। दुकानदार भी रस्क (टोस्ट) खरीदने और बेचने के पहले बनाने वाले का ध्यान रख रहे हैं। फल और सब्जी खरीदते समय भी आकलन कर ले रहे हैं कि कहीं ऐसे व्यक्ति से तो नहीं खरीद रहे जिससे जुड़े लोगों के कारण पूरे देश में कोरोना का तेजी से फैलाव हुआ। पहले ही मुश्किलें कम नहीं थीं। तब्लीगियों ने परेशानी कई गुना बढ़ा दी है। सामाजिक व्यवहार ही बदल दिया है।

कोरोना वार में मोबाइल के दावेदार

मम्मी! सुबह सात बजे से क्लास है। 11 बजे तक चलेगी। बीच में 9: 30 से 10 बजे तक का ब्रेक होगा। जब पूरा देश कोरोना के कारण घरों में कैद है, महिलाओं की ड्यूटी बढ़ गई है। समय से नाश्ते व खाने का प्रबंध करने में कोई रियायत नहीं है। पहले सभी के स्कूल-कॉलेज, दफ्तर-दुकान चले जाने पर थोड़ी चैन की सांस ले लेती थीं। टीवी सीरियल देख लेती थीं। मोबाइल पर सोशल मीडिया के जरिए नाते-रिश्तेदारों-दोस्तों से अपडेट हो जाती थीं। गेम भी खेल लेती थीं। अब तो रामायण के समय ऑनलाइन क्लास के कारण बच्चे टीवी की आवाज (साउंड) को भी नियंत्रित रख रहे हैं। सबसे ज्यादा मुश्किल मोबाइल के दावेदारों के कारण है। पहले बच्चों को इससे दूर रखा जाता था। लॉक डाउन के कारण नए मोबाइल की खरीद हो नहीं सकती। ऐसे में माता-पिता में एक या दोनों को एक और समझौता करना पड़ रहा है।

डॉक्टरोंं को लगा थानेदारोंं का रोग

कोरोना के कारण लोगों का व्यवहार बदल रहा है। मौत या दुर्घटना होने पर थाने का झगड़ा उभरकर सामने आता रहा है। पीड़ित एक थाने से दूसरे थाने तक केस दर्ज कराने के लिए चक्कर लगाते हैं। बीच सड़क के दाएं या बाएं होने पर थाना क्षेत्र बदल जाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति कोरोना ने कर दी है। मरीजों की संख्या बढ़ते ही जिला और क्षेत्र के यलो और रेड जोन में डाल दिया जाता है। प्रशासनिक सख्ती और चिकित्सकीय परेशानी बढ़ जाएगी। आंकड़ों का यही दबाव डॉक्टरों पर हावी होता दिख रहा है। मैके रोहतक गई महिला पीजीआइ में जांच के दौरान पॉजीटिव पाई गई। स्वस्थ होकर पानीपत के नौल्था गांव स्थित ससुराल लौट आई। एक तरफ गांव वाले उसे गांव में रहने नहीं देना चाहते। दूसरी तरफ रोहतक और पानीपत के चिकित्सा अधिकारी पॉजिटिव केस को अपने-अपने क्षेत्र का मानने के लिए तैयार नहीं हैं।

मजदूरों की कमी का डर

कोरोना संकट समाप्त होने के बाद उद्योगों को मजदूरों की कमी का डर सता रहा है। लॉक डाउन के कारण औद्योगिक मजदूर न अपने घर लौट सके और न ही उद्योगों में कोई काम कर पा रहे हैं। गेहूं की फसल काटने के लिए बड़ी संख्या में पूवार्ंचल के लोग हर वर्ष एक महीने तक की छुट्टी पर जाते रहे हैं। कोरोना के कारण पूरा आवागमन चR गड़बड़ा गया है। उद्यमियों और कारोबारियों की चिंता है कि मुश्किल समय में परिवार से दूर रह रहे लोग लॉक डाउन खुलते ही तेजी से अपने-अपने गांवों की ओर जाएंगे। कारोबारियों में इसी बात की चर्चा है कि बदले हालात में पहले ही भारी नुकसान ङोल रहा उद्योग व कारोबार जगत किस तरह खुद को संभालेगा। संकट ऐसा है कि कुछ करते नहीं बन रहा। अभी सरकारी संकेत और अधिकारियों के निर्देश पर कर्मचारियों के वेतन और भोजन का प्रबंध मजबूरी भी है।

Monday, April 29, 2019

तैयार फसल में आग

गेहूं की फसल तैयार हो और उसमें आग लग जाए। 
किसान के हिस्से क्या बचेगी? ...खाक..। 

भुगतेगा कौन? सिर्फ किसान और लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार। 
पांच साल के प्रदर्शन के आधार पर चुनावी फसल काटने को तैयार नेता या सरकार के हिस्से क्या आएगा
किसान वोटरों की नाराजगी। 
फिर सवाल, इस आग से नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार?

बिजली निगम, फायर ब्रिगेड विभाग, जिला प्रशासन, शीर्ष नौकरशाह, तेज हवाएं, सरकार, नेता या किसान

सवाल इसलिए ज्वलंत हो उठा क्योंकि प्रदेश में अब तक 2000 एकड़ से अधिक में गेहूं की तैयार फसल राख हो चुकी है। मौसम चुनावी है। इसलिए प्रभाव भी बहुआयामी होगा।
 जिम्मेदारी तय करने और मुआवजा भुगतान के लिए कमेटियां गठित होंगी। सनद रहे, यह आगजनी प्राकृतिक आपदा नहीं है, इसलिए बीमा का भुगतान नहीं सकता हो। .. और मुआवजा भुगतान? ध्यान रहे, चुनाव आचार संहिता लागू है। अभी तरह तरह की जांच प्रक्रियाएं चलेंगी। जब तक कुछ राहत मिलेगी तब तक गेहूं और चुनाव, दोनों का मौसम निकल चुका होगा। किसान अपनी आमदनी से उल्लास की अनुभूति नहीं कर पाएगा और चुनाव आचार संहिता से प्रभावित अधिकार विहीन नेता नाराजगी भुगतने को अभिशप्त होंगे। न कुछ कर सकते न कुछ बोल सकते। 
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की रग-रग से जनता परिचित है। आज तक किसी भी घटना-दुर्घटना के लिए व्यवस्था और व्यवस्थापक कभी दोषी नहीं रहे। या तो जनता दोषी होती है या सरकार। मुश्किल है कि इस समय सरकार ग्रहणकाल में है। सवाल फिर जागा। तो फिर आग के लिए जवाबदेह कौन?

वैसे जांच एजेंसियों की चले तो वैशाख के महीने में पछुआ हवा को ही आगजनी के लिए मुख्य दोषी ठहरा दें। कायदे का तार्किक जवाब - आगजनी की दोषी तेज हवाएं हैं। क्यों? क्योंकि न तेज हवाएं होतीं, न बिजली के तार आपस में टकराते, न चिंगारी निकलती, न गेहूं में आग लगती, न फायरब्रिगेड की गाड़ी की परीक्षा होती, न सरकारी अधिकारियों को कमरों से बाहर निकलना पड़ता, न शीर्ष नौकरशाहों को ससमय योजना नहीं बनाने और कार्यान्वयन नहीं होने पर चिंता करनी पड़ती, न सरकार की बदनामी होती। 

वैसे मूल दोष तो किसान का ही है न, जिसने गेहूं की फसल को हवाएं चलने से पहले काट नहीं लिया। इसलिए उसे ही भुगतना होगा। भुगतान के बारे में चुनाव बाद सोचेंगे।निश्चिंत रहें। इस प्रकरण में वह कहीं नहीं फंसेंगे जिन्होंने फायर ब्रिगेड को पंगु बना दिया है। न पूरे कर्मचारी हैं और न ही संसाधन है। मुआवजा कब मिलेगा? पता नहीं। 
चुनाव आचार संहिता का समय है। जिला सचिवालयों पर पहुंचने वाले किसानों की स्थिति की लाइव कल्पना करें ..किसान हाथ जोड़े हुजूर के दरबार में महीनों चक्कर लगाएगा। सारी मेहनत मिट्टी में और वह गिड़गिड़ाएगा। चपरासी, बाबू, अफसर समझाएगा।
मुश्किलें .. वैशाख के करार पर खरीदे गये सामानों का भुगतान कैसे होगा। लिए गए कर्ज पर ब्याज को किसान कैसे रोके?
हालात .. फसल में आग लग चुकी है। सूचना फाइलों में दर्ज हो गई है। लोकतंत्र में जनता ही सरकार है। सरकार ही जनता है। जनता जाने और सरकार। फिलहाल चुनाव आचार संहिता लागू है।

Tuesday, January 23, 2018

शिक्षा पर पुनर्विचार करें व्यवस्था के तीनों अंग

बात बेबाक


सतीश श्रीवास्तव


यमुनानगर, लखनऊ और गुरुग्राम। भले तीन शहरों के नाम हों, यहां के स्कूल परिसर खून से लथपथ हैं। जवान होते बच्चों के हाथों में हथियार हैं। शिक्षक से सहपाठी तक निशाने पर आ गए हैं। शिक्षा के मंदिर को आक्रामकता झकझोर रही है। ऐसे में व्यवस्था और व्यवस्थापक मौन नहीं रह सकते। साथ ही राजनीतिक लाभ के लिए किसी को इतना शोर मचाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती कि मुद्दा ही गौण हो जाए। 
घटना स्तब्ध और बेचैन करने वाली है। यमुनानगर के विवेकानंद स्कूल की प्रिंसिपल रितु छाबड़ा की शनिवार दोपहर प्रिंसिपल रूम में घुसकर दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। हत्यारा 12वीं का छात्र है। लोगों ने उसे मौके पर पकड़ लिया। 
यह घटना क्यों हुई? 
ऐसा पहले भी तो हुआ। 

गुरुग्राम के एक स्कूल में पहली कक्षा के छात्र की हत्या के मामले में 11वीं कक्षा का छात्र हिरासत में है। लखनऊ के ब्राइटलैंड स्कूल के पहली कक्षा के छात्र को चाकुओं से जख्मी करने के आरोप में सातवीं कक्षा की छात्र को गिरफ्तार किया गया है। दोनों छुट्टी चाहते थे।
चलें जरा 20 साल पहले। उन्हीं लोगों के स्कूल काल में जिनके बच्चे आज स्कूलों में ऐसे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। आज प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा बढ़ी है पर शिक्षकों की प्रतिबद्धता सवालों में है। पहले शिक्षकों की प्रतिबद्धता, मान - सम्मान और गरिमा की रक्षा छात्र - अभिभावक और समाज की जिम्मेदारी थी। अब अभिभावक और छात्र उपभोक्ता हैं और व्यवस्था कहीं न कहीं पश्चिमी दुनिया की पिछलग्गू दिखती है। वहां 20- 30 साल पहले ही स्कूलों में हिंसा की ऐसी घटनाएं हो रही हैं। सरकार निजी स्कूलों पर दबाव बना सकती है कि मुख्य द्वार पर मेटल डिटेक्टर लगाए, पर यह समाधान नहीं है। शिक्षा व्यवस्था में चार पक्ष हैं। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और समाज। शिक्षक में स्कूल प्रबंधन से लेकर शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक कर्मचारियों को भी शामिल कर लिया जाए। समाज का संबंध व्यवस्था से है। व्यवस्था अर्थात कानून बनाने वाले, उसका पालन करने वाले और उसका पालन सुनिश्चित कराने वाले। अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।

स्कूल में हिंसा की घटनाएं बार-बार हो रही हैं इसलिए समाज अर्थात व्यवस्था सवालों के घेरे में है। गौर करें। शिक्षक और शिक्षा पर पूंजी और प्रभाव हावी है। विचारें, क्या शिक्षक को पेशेवर बनाने की होड़ में शिक्षा के प्रति अनुराग और शौक से उसे दूर कर दिया गया है? नहीं पढ़ने वाले छात्रों को भी अगली कक्षा में भेजने की व्यवस्था ने खालीपन पैदा किया है? साक्षर को शिक्षित घोषित करने का अदृश्य दबाव है। इससे उबरना होगा। गुनहगार बनाने और फिर उसे खोजने वाली व्यवस्था को जवाबदेही लेनी होगी। सरकारी स्कूलों को गर्त में ले जाने के बाद औसत आमदनी वाले शहरी लोग शिक्षा के लिए निजी स्कूलों की तरफ पलायन कर चुके हैं। दूसरी तरफ कानून ऐसे बन चुके हैं कि हर गड़बड़ी के लिए शिक्षक ही गुनहगार हैं। निजी स्कूलों के शिक्षक कितने डरे और सहमे हुए हैं, इसके लिए जमीनी स्तर पर अध्ययन की जरूरत है। एक तरफ नौकरी का डर दूसरी तरफ ट्यूशन फीस भुगतान करने वाले छात्र-अभिभावक का डर। तीसरी तरफ समाज - व्यवस्था का डर। सभी पक्षों को विचार करना होगा कि शिक्षकों का सम्मान और गरिमा कैसे कायम हो। ध्यान रहे, किसी भी मंदिर की प्रतिष्ठा उसके पुजारी ही बढ़ाते हैं। वहां लाखों करोड़ दान करने वाले दाता - पूंजीपति और व्यवस्थापक नहीं।

Monday, November 20, 2017

मीडिया की विश्वसनीयता और पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां

आज बड़े स्तर पर चर्चा विषय है कि क्या मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रही है। चर्चा की शुरुआत मीडिया के विभिन्न स्वरूपों से कर सकते हैं। हम अभी समाचार पत्रों की बात करें या टेलीविजन की या वेब पोर्टल की या रेडियो की या वाट्सएप फेसबुक ट्वीटर वाली सोशल मीडिया की। वर्तमान दौर की पत्रकारिता में मुख्यधारा का पत्रकार बने रहना सबसे बड़ी चुनौती है। पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियों को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि 60 और 70 के दशक में बड़ी संख्या में लोग इंजीनियर – प्रोफेसर – शिक्षक की नौकरी छोड़कर पत्रकार बने तो आज कोई छोटी सी भी सरकारी नौकरी मिलते ही लोग पत्रकारिता छोड़ देते हैं। 40 से 50 की उम्र में बड़ी संख्या में पत्रकार मुख्यधारा से बाहर हो रहे हैं। कर्मठता इतनी है कि नया व्यवसाय शुरू करके भी सफल हो रहे हैं। पत्रकारिता की चुनौतियों को समझने के लिए इसका अध्ययन किया-कराया जा सकता है।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पिछले दिनों ही यह बात दोहराई कि एक जीवंत लोकतंत्र में चर्चा और मतभेद जरूरी है। हम सभी मीडियाकर्मी इससे इत्तेफाक रखते हैं। इसी सोच के साथ पत्रकारिता को पेशे के तौर पर अपनाते हैं। वर्तमान दौर में सार्वजनिक संस्थाओं को पारदर्शी बनाने और उनके कामकाज पर स्वतंत्र तरीके से निगरानी रखने वाली संस्था भी मीडिया मानी जाने लगी है। जनता मानती है कि मीडिया ही उसकी आवाज है। संकट और चिंता इसलिए भी है कि कई मीडिया मुगल सत्ता के गलियारे में चक्कर काटते हुए देखते ही देखते हजारों करोड़ के हो गए। पत्रकार से मालिक बन गए तो चरित्र में चौतरफा बदलाव हो गया वह पूंजी बनाने और कमाने की कला भी जानते हैं और पत्रकारिता की नब्ज को भी समझते हैं। रंग बदलते हैं। कहीं चाटूकार - चापलूस हैं तो पलक झपके ही सख्त और निर्दयी हैं। दिल्ली के सत्ता के गलियारे में उनकी तूती बोलती है। नब्बे के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुफ्त में उपलब्ध वीडियो सरकारी संस्था दूरदर्शन को बेच बेच कर एक व्यक्ति चैनल खड़ा कर लेता है तो उसकी निरपेक्षता और ईमानदारी पर चर्चा कहां से शुरू होगी? कहां से होनी चाहिए? उस पूंजीपति की अकूत संपत्ति की जांच शुरू होती है तो पत्रकार विरादरी के नाम पर हंगामा शुरू हो जाता है। हरियाणा का एक बाबा पिछले दिनों पकड़ा गया तो उसके आठवीं पास होने से लेकर उसके रिश्तेदार के गैंगस्टर होने तक के पन्ने खोल डाले। फिर एक सवाल यह भी है कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस का मीडिया सेल देखने वाला अश्लील वीडियों के साथ पकड़ा जाता है तो उसे पत्रकार क्यों कहा जाना चाहिए?  आज प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है कि मीडिया की विश्वसनीयता को मीडिया से ही खतरा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में बिना सांस रोके लगातार एकतरफा संवाद बोलने वाले खीज पैदा कर रहे  हैं। कई न्यूज चैनलों पर देखा जा सकता है कि सोच समझ के साथ अनावश्यक विवाद खड़े किए जाते हैं। मामले मुद्दे भटकाए जाते हैं। यह टीआरपी का खेल है। जिसमें सभी नंबर वन तथा बाकी सभी फेल हैं। अगर कोई व्यवस्था भ्रष्ट बनाती है तो उससे सांठगांठ करने वाले व्यक्ति को पाकसाफ नहीं कहा जा सकता।  पहले करने, पहले पाने, पहले पहले और पहले की होड़ के साथ-साथ काजल की कोठरी में बेदाग रहने की चुनौती है पत्रकारिता के सामने

वैसे तो पत्रकारिता की मुख्यधारा की स्वतंत्रता पर सवाल उठाने वालों की कमी नहीं है। वर्तमान मीडिया में वाद है, विवाद है परंतु संवाद गायब होता जा रहा है।  कुछ लोगों का मानना है कि मुख्यधारा की मीडिया कुछ लोगों के हाथों में खेल रही है। इसमें संदेह है कि ऐसे लोग जनता के प्रति जवाबदेह है। साथ ही जनता में भ्रम पैदा किया जा रहा है कि मीडिया में विचारधारा की लड़ाई है। यहां तो बार-बार साफ नजर आता है कि जिनके बीच सत्ता का संघर्ष है उन्हीं के बीच समझौता भी। अगर ऐसा नहीं होता तो जमीन घोटाले में दामाद जी तीन साल में जेल के अंदर तो जा ही चुके होते।
मजबूत लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र मीडिया की अहम भूमिका को सभी स्वीकारते हैं परंतु गंभीर चुनौती है कि भले ही आर्थिक कारणों से हो, आजादी के बाद सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने मीडिया को अपना मुखपत्र बना लिया है। कॉरपोरेट घरानों की भागीदारी ने धार को और कुंद कर दिया। कुछ को छोड़ दें तो यह बहुत ही सरल तरीके से आभास हो जाता है कि वह अखबार या मीडिया घराने जो मई 2014 से पहले किसी अन्य पार्टी के गुनगान में लगे थे अब पलटी मारते हुए दूसरे पाले में है। मजे की बात यह है कि कुछ ऐसे भी घराने हैं जो पलटी नहीं मार सकते थे, जिनमें सत्ता से वंचित हुए प्रमुख हस्तियों की आर्थिक भागीदारी है, वह एकतरफा विधवा भी विलाप करते हैं।

पत्रकार बढ़े, पत्रकारिता घटी
देश में विभिन्न भाषाओं 400 से अधिक न्यूज चैनल हैं। इनमें बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ मराठी भाषाएं भी शामिल हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद वित्तपोषित कुछ चैनल और बढ़े हैं तथा 150 से अधिक स्वीकृति के इंतजार में है। १० हजार से अधिक अखबार भी प्रकाशित हो रहे हैं। इसके बावजूद हकीकत यही है कि एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा कराए गए विश्वेषण में विशेषज्ञों ने भारतीय पत्रकारिता को 180 देशों की सूची में 136 वें स्थान पर रखा है। अगर आजादी की ल़ड़ाई में अखबार मुख्य हथियार थे तो आज मीडिया कहां है, कुछ देर मौन होकर खुद विचारने की जरूरत है। बुरी बात यह है कि विचार कर भी लें, समाधान के उपाय निकाल भी लें तो पत्रकार उन्हें कारगर बनाने की स्थिति में हैं क्या पूंजी के खेल में सबकुछ फेल। नजारा कुछ ऐसा ही है।
साथ ही यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि मानवाधिकार और व्यक्ति की आजादी के नाम पर खेल करने वालों ने मीडिया का सबसे बुरा किया है। हम सत्ता को जवाबदेह तो चाहते हैं परंतु जवाबदेह नहीं बनना चाहते। मीडिया के कुछ बड़े घरानों में बेचैनी है। उनकी पिछली सत्ता से सांठगांठ थी। खूब फले फूले। अब यह बताना मुश्किल है कि कैसे फले फूले। ध्यान रहे कुछ बड़े कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो 2014 से पहले सत्तारूढ़ पार्टी के भी मुख्य फाइनेंसर थे और बाद में सत्तारूढ़ दल के लिए भी उसी भूमिका में है। अर्थात दोनों ही उनके हैं। जनता और पत्रकारिता कई बार भ्रमित हो जाती है तो कई बार ठगा महसूस करने लगती है। हममें से कुछ लोग हैरान हो जाते हैं जब पता चलता है कि वर्तमान सरकार को पानी पी पी कर गाली देने वाले टीवी चैनल एनडीटीवी के साथ साथ न्यूज 24, नेटवर्क 18, न्यूज नेशन और इंडिया टीवी या तो देश के सबसे धनी व्यक्ति, रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी के कर्जदार ैं या रिलायंस जीओ वाले महेंद नाहटा के। इसके आगे की कड़ी यह भी है कि पूंजी के प्रवाह से चाहे अनचाहे पक्षपाती हुए पत्रकारों पर हमले भी होते हैं। वर्ष २०१४ में ११४ पत्रकारों पर हमले हुए और बमुश्किल ३२ में ही आरोपी पकड़े गए। जनवरी २०१६ से अप्रैल २०१७ के बीच ५४ पत्रकारों पर हमले की भी सूचना है। मीडिया की विश्वसनीयता, मीडिया में भरोसा, मीडिया का संदेहवाद या मीडिया की कुटिलता। शत्रूतापूर्ण मीडिया अवधारणा भी एक पहलू है। इन सबके बीच एक सच्चाई यह भी है कि मीडिया से समाज उम्मीद बहुत करता है। अध्ययन बताते हैं कि पश्चिमी मीडिया की विश्वसनीयता भी तेजी से घटी है। गूगल न्यूज से लेकर याहू न्यूज तक विश्वसनीयता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया को खुद जज बनने की प्रवृत्ति से भी बचना होगा। उदाहरण के तौर पर आरुषि हत्याकांड से सबक लेने की जरूरत है। अभी गुरुग्राम का प्रद्युम्न हत्याकांड में बस के सहायक पर सवाल उठाने वालों ने जिस तरह से पलटी मारी है वह विश्वसनीयता को ही डंवाडोल कर रही है।
आज पत्रकारिता को कायम रखना सबसे बड़ी चुनौती है। स्पष्ट है कि पत्रकारिता महज एक मिशन तक सीमित न होकर व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है। मीडिया संस्थानों के अपने हित हैं। आज का पत्रकार भी संस्थानों के इन हितों की अनदेखी की स्थिति में नहीं है। कदम-कदम पर नई चुनौतियों का सामना करना पडता है। चुनौती खबर को खबर तक सीमित रखने की, चुनौती सत्य को सत्य बनाए रखने की, चुनौती सत्ता से तालमेल बनाए रखने की। इन तमाम चुनौतियों से पार भी पा लिया तो अहम चुनौती अपने संस्थान के हितों पर खरा उतरने की है।   

 

हरियाणवी में कहूं तो --- पत्रकारिता में सारे एक दूसरे से ब्याहे हुये सैं। एक का चाल चरितर गलत होवे, कोई गलत काम कर देवै, कोई गलती कर दे तो सारयां की माटी पलीद हो जावे


पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां
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मीडियाकर्मी का लक्ष्य क्या होता है। कोई व्यक्ति मीडिया में क्यों आता है? यह निरंतर चिंतन का विषय है। एक युवा समाज की दशा दिशा बदलने के लिए पत्रकारिता को जीविका बनाता है। मीडिया के समक्ष आर्थिक,  सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक, सापेक्षता/ निरपेक्षता / भ्रष्टाचार जैसी चुनौतिया हैं।
आर्थिक लक्ष्य --- अब तक मीडिया ऐसे सार्थक रेवन्यू मॉडल को विकसित करने में नाकाम है जिसमें अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता के साथ साथ उसे व्यावसायिक रूप से फलने फूलने का रास्ता  भी मिले। वेब मीडिया ने रास्ता दिखाया पर वह भी विज्ञापन के मायाजाल में फंसता जा रहा है। देश के दो अपेक्षाकृत विश्वसनीय अखबारों की बात करें तो इंडियन एक्सप्रेस और दि हिंदू का नाम लेना मजबूरी होगी। दि हिंदू का रविवार का अंक 15 रुपये का है जबकि अन्य अखबार पांच रुपये तक में उपलब्ध हो जाते हैं।
सामाजिक --- समाज को बदलने में पत्रकारों की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए उसे सकारात्मक सोच के साथ प्लानिंग करनी होंगी। वर्तमान में पत्रकारिता में शिक्षा और चिकित्सा जैसे मुद्दों के लिए कम ही स्थान है। विकास के मुद्दे गौण हैं। सकारात्मक खबरों को जैसे हम भूल ही गए हैं। पत्रकारिता को अपनी भूमिका को समझना होगा और आम आदमी की आवाज बनकर आगे बढऩा होगा।
बौद्धिक - समय के हिसाब से पत्रकारिता में बदलाव हो रहे हैं। इसलिए पत्रकारों को भी हमेशा अपडेट रहना पड़ेगा। टेक्नोसैवी बनना पड़ेगा। हर किसी मुद्दे पर चिंतन-मंथन करते रहना होगा। नई मीडिया के पत्रकारों ने अनुशासनहीन भाषा की संरचना को जन्म दिया। जल्द से जल्द और पहले खबर लोगों तक पहुंचाने की होड़ में भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है।

अंतत: कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में मीडिया की भूमिका पर समाज की चिंता जायज है। इसके लिए मीडिया को खुद आगे बढ़कर अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी।
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ब्रजभूषण शर्मा के शब्दों के साथ अपनी बातों को विराम देना चाहूंगा --
धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे
कली बेच देंगे चमन बेच देंगे 
कलम के सिपाही अगर सो गए तो 
वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।


किसी की भावनाएं आहत हुई हों तो कृपया क्षमा करेंगे।