Tuesday, October 21, 2008

जलियांवाला बाग

घटना के 90 और आजादी के 61 साल बाद जलियांवाला बाग मुद्दे पर नए दृष्टिकोण से चर्चा का अवसर मिलना सौभाग्यपूर्ण है। सौभाग्य इसलिए कि इसी बहाने हमें जीवंतता के साथ इतिहास के पन्नों को खोलने का मौका मिला है। इतिहास में भागीदारी के मार्ग खुले हैं। कुछ बुद्धिजीवियों को सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से घटना क्रम को समझने और सत्य की खोज के लिए नए सिरे से अपने दिमाग को झकझोरने की प्रेरणा भी मिल जाए, तो अमृतसर के खालसा कालेज का यह प्रयास सफल मानना गलत नहीं होगा। यह वही कालेज है जिसके प्रिंसिपल जीएस बैथन ने 14 अप्रैल 1919 को गुरु की नगरी अमृतसर पर हवाई हमले का डटकर विरोध किया। सबक सीखाने को उतावले अपने हम वतनों को रोक दिया था। यह वही कालेज है जहां के बड़ी संख्या में छात्र घटना में प्रत्यक्ष गवाह और भागीदार थे।
चर्चा के केंद्र में घटना की तारीख वही है, 13 अप्रैल 1919। परंतु मरने वालों की संख्या आज भी तय नहीं है। कोई साढ़े तीन सौ, कोई साढ़े चार सौ तो कोई 1300 बताता है। यानी जिस घटना को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा, उसके शहीदों की संख्या आज भी आलू - प्याज या फिर कहें शेयर बाजार की कीमतों की तरह कभी उछाल मारती, तो कभी मुंह के बल गिर पड़ती है। जिस घटना के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि अगर पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश सामाज्य का विस्तार शुरु हुआ था तो जलियांवाला बाग की घटना के बाद अंत। क्या सही में ऐसी थी जलियांवाला बाग की घटना। तो फिर जलियांवाला बाग के शहीद आज भी हमारे फ्रीडम फाइटर क्यों नहीं हैं ? क्या कहा, फ्रीडम फाइटर नहीं हैं ! स्वतंत्रता सेनानी नहीं हैं ? जी हां!
जलियांवाला बाग के शहीद भारत की आजादी के 61 साल बाद भी फ्रीडम फाइटर नहीं हैं।
यही है मेरी तरफ से पूरी चर्चा का केंद्र। बिना किसी लाग लपेट के कहूंगा, यही है भारत की असली तस्वीर। हर साल 13 अप्रैल को यह सुन सुन कर कान पक चुका है ---
`जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करता वह कौम मर जाता है।'
अगर यह सही है तो जलियांवाला बाग के शहीदों को नकारने वाले कौम के बारे में बुद्धिजीवी क्या राय रखेंगे ?
- जवाब होगा, नहीं। हम वाइब्रेंट इंडिया (जीवंत भारत) के नागरिक हैं। तेजी से तरक्की कर रहे हैं। दकियानूस विचारधारा वाले ही कौम के मरने जैसी बात कर सकते हैं। यह देश जीवंत है। जिंदा है।
लेकिन इसे स्वीकारने में असहज नहीं होना चाहिए कि कौम का साइज (आकार) भी आजादी के पहले और बाद के पंजाब के आकार की तरह बड़े से छोटा हो गया है। कंप्यूटर और वैश्वीकरण के दौर में ग्लोबल विलेज की बात करते समय कभी महाराष्ट्र, तो कभी जम्मू कश्मीर, तो कभी नार्थ इस्ट के असम व अन्य राज्यों में कौम के उभरे नए कांसेप्ट पर चर्चा करने को दिल मचल उठता है। तभी तो किसी कवि मन कराह उठता है --
ऐ कौम देख तेरी हालत को क्या हुआ
हैरत में है आईना सूरत को क्या हुआ
जिसने बड़े बड़ों के छक्के छुड़ा दिए
उस शूर - वीर कौम की हिम्मत का क्या हुआ ?
इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े हो जाते हैं -----
- क्या देश के वर्तमान हालात अपने शहीदों और आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की उपेक्षा का नतीजा नहीं है ?
- क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस आजादी का सपना देखा था, वो पूरा हुआ ?
अगर नहीं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का विश्लेषण और जरूरी हो जाता है। एक तरफ बड़ी संख्या में फर्जी फ्रीडम फाइटरों ने आजादी के बाद सरकारी स्कीमों का लाभ उठाया। दूसरी तरफ यह ध्यान देने की जरूरत है कि असली फ्रीडम फाइटर असली आजादी, दूसरी आजादी की बात करते हुए एक के बाद एक कर गुमनामी की मौत मरते गए।
- जरा गौर करें, सत्ता पर कौन काबिज हैं ? जो काबिज हैं, उनकी पिछली पीढ़ियों की कारगुजारियों को जनता के समक्ष रखना बुद्धिजीवियों की खोज का विषय बन सकता है।
इन्हीं वजहों से जलियांवाला बाग जीवंत हो उठता है। जलियांवाला बाग को इतिहास के पन्नों से बाहर निकाल कर देखने और समझने की जरूरत है। पहले चर्चा आम अमृतसरियों में 13 अप्रैल 1919 की घटना बारे सोच की। अमृतसर के लगभग 90 प्रतिशत निवासी लोग मानते हैं कि -----
1. लोग गांवों से बैशाखी मनाने स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। वही जलियांवाले बाग में मेला देखने पहुंच गए थे।
2. अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं।
3. बाग में लोग ताश खेल रहे थे और आराम कर रहे थे, सो रहे थे।
4. मारे गए लोग बाग में टहलने के लिए पहुंचे थे।
5. मारे गए लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोर्चा लेने नहीं गए थे। भाषण सुन रहे थे। ऐसे भी लोग थे जो सिर्फ तमाशा देखने पहुंचे थे।
6. फायरिंग होने पर लोग भागने लगे थे। भगौड़े थे। पीठ में गोलियां खाईं।
7. बाग में लोगों पर फायरिंग एक `घटना' थी, आंदोलन नहीं।
8. घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को तत्कालीन सरकार ने चार हजार से 20 हजार रुपये तक का मुआवजा दे दिया था जो सोने की वर्तमान कीमतों के आधार पर 20 लाख से एक करोड़ रुपये तक बनता है।
और अंत में कुछ नहीं चलता है तो पलायन का फार्मूला है ---
9. कुछ तो कारण होगा जिसकी वजह से नहीं मिला दर्जा।
कितनी गंभीर बात है। कुछ लोग इन बातों को शर्मनाक भी कहेंगे। लेकिन स्वीकारना होगा कि आम लोगों के बीच इस तरह के भ्रम के कारण हैं। यह कुटनीतिक फंडा है, किसी कौम को मारना हो तो उसका सम्मान मार देना चाहिए। किसी को अतिवादी कहकर तो किसी को अति उदारवादी बताकर नकार दो। पूरी व्यवस्था ही नकारी हुई हो जाएगी ।61 सालों में देश का सिर्फ बंटवारा ही तो हुआ है। कभी जाति, धर्म, संप्रदाय और पंथ के नाम पर तो कभी क्षेत्र और भाषा के नाम पर । बिना देरी जवाब भी दिया जाना चाहिए। कितनी गंभीर बात है कि मात्र 90 वर्ष बाद ही हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर इतने गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं । इतिहास बदला हुआ है। यानी 90 साल पहले की घटना के बारे हम इतने गलत विचार रख रहे हैं, तो पांच सौ, पांच हजार साल पुराने इतिहास के बारे में हमारी समझ और ज्ञान कितना सही होगा? यह तो इतिहासकार बताएं। सोचें और विचारें । देश के कोने - कोने में ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने फ्रीडम फाइटर के नाम पर दी जाने वाली सुविधाएं नकारीं। क्या हम उन्हें ही नकार कर उनकी शहादत की कीमत दे रहे हैं।देश के हर कोने में ऐसे शहीद हैं जिन्हें हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना । देश के हर इलाके में असली स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान के प्रमाण बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं। देश की प्रगति चाहते हो तो युवाओं मे देश भक्ति का जजबा भरना होगा । अन्यथा प्रतिभाओं के अमेरिका - इंगलैंड पलायन को नहीं रोका जा सकेगा ।बिना लाग लपेट, झूठ फरेब, चिंता फिक्र के बुद्धिजीवियों को बुद्धिजीवी बने रहने का मनोबल तैयार करना होगा । चाटूकारिता छोड़ हमें देश के इतिहास को दिल , दिमाग व दृष्टि के साथ लिखने की हिम्मत करनी होगी। सत्ता पर कब्जे के लिए सच को झूठ बनाने के खेलों को फेल करने के लिए सच्चाइयों का पर्दाफाश करना होगा ।

अब जरा जलियांवाला बाग के शहीदों की उपेक्षा के कारणों पर गौर करें। -----
1. 1947 में भारत - पाकिस्तान बंटवारा हुआ। पंजाब, बंगाल और कश्मीर आदि बंट गए। पहले अमृतसर में मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए लोग यहां दंगे के कारण खाली हुए घरों पर काबिज हो गए। यहीं आजादी के साथ अमृतसर की आबादी ही बदल गई।
2. जलियांवाला बाग में 1919 में मारे गए अधिकांश लोग शहर के निवासी थे। कुछ लोग आसपास के गांवों के भी मारे गए थे। घटना के बाद अमृतसर शहर में गांवों के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय तक पाबंदी रही। मार्शल लॉ लगा दिया गया था। यह बात बताने की जरूरत नहीं कि पहले अधिकांश जाट (सिख) आबादी गांवों में रहती थी। शहर में हिंदू और मुसलमान ज्यादा थे। आजादी के बाद जनसंख्यात्मक ढांचा ही बदल गया।
3. गंभीरता से विचारें - क्या अंग्रेज पहले से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर काम कर रहे थे ? पहले सम्मेलन स्वर्ण मंदिर परिसर में होना था। वहां नहीं होने दिया गया। 1920 से गुरुद्वारा सुधार लहर की शुरुआत हो गई। 1925 में कानून बनाकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक ट्रस्ट (कमेटी) की स्थापन कर दी गई। आजादी की लड़ाई के बीच में ही अलग पहचान के जंग की शुरुआत ! रिसर्च का काम आगे बढ़े तो शायद कुछ मिल जाए। समय और सवाल के तार जुड़ते हैं।
4. मारे गए लोग वैशाखी मनाने वाले नहीं थे। इस भ्रम को ठीक से दूर कर लेना चाहिए कि जलियांवाला बाग में जमा हुए लोगों का वैशाखी से कोई रिश्ता नहीं था। वैशाखी के मौके पर स्नान करने पहुंचने वाले लोग सुबह - सुबह स्नान करते हैं। शाम चार - पांच बजे नहीं। दूर - दूर से आए लोग एक दिन पहले भले ही बाग में ठहरे हों, स्नान के बाद उनके ठहरने का मतलब नहीं। स्पष्टत: लोग सुबह - सुबह ही स्नान करके चले गए थे। घटना के लिए भीड़ का जमा होना दोपहर एक बजे के बाद शुरु हुआ था। फायरिंग की घटना शाम पांच बजे की है।
5. यह कहना भी पूरी तरह गलत और भ्रम फैलाने वाला है कि अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं। अमृतसर पहले से ही रालेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन का केंद्र बना हुआ था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर 30 मार्च और 6 अप्रैल को दिल्ली और मुंबई के साथ अमृतसर में रहा पूर्ण बंद इसका प्रमाण है। 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस का नेतृत्व घोड़े पर सवार होकर डा. हफीज मोहम्मद बशीर द्वारा किया जाना, अमृतसर के तत्कालीन डीसी माईल इरविन का घबराना इसका प्रमाण है कि अंग्रेज अंदर से हिल गए थे। तभी तो 10 अप्रैल को अहले सुबह डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। बदले में हिंसा भड़की और 30 आंदोलनकारी मारे गए।
6. वैशाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 का समागम 10 अप्रैल की हिंसा में मारे गए लोगों के सम्मान में था। शोक सभा थी जिसकी अध्यक्षता डा. सतपाल और डा. किचलू की तस्वीरें कर रही थीं।
7. यह बातें बहुत जोर से हाईलाइट की जाती हैं कि घटना के वक्त लोग बाग में सैर करने, आराम करने और ताश खेलने में व्यस्त थे। यह बहुत बड़ा झूठ है। दावे के साथ कह सकता हूं कि अमृतसर के किसी भी व्यक्ति को याद नहीं होगा कि किसी भी दिन जलियांवाला बाग में एक वक्त में 20 से 22 हजार लोगों का जमावड़ा देखा हो। अब तो वहां की सड़कें चौड़ी हो गई हैं। पहले तो गलियों से होकर बाग में घुसना तो और मुश्किल था। अगर 20 - 22 हजार लोगों में दो - चार - छह सौ लोग सैर, आराम और ताश में व्यस्त भी थे, तो कौन सी बड़ी बात है। इसे इनता मजबूती से क्यों बार - बार दुहराया गया कि हिटलर की रणनीति याद आ जाए, `झूठ को इतनी बार दुहराओ की सच नजर आने लगे।'
8. यह बात पूरी तरह सच है कि बाग में जमा हुए लोगों के पास हथियार नहीं था। यह इस बात को मजबूती ही प्रदान करता है कि लोग शोक व्यक्त करने जमा हुए थे। संघर्ष करने नहीं। जो लोग बाग में जमा हुए थे, सभी वैचारिक तौर पर 10 अप्रैल 1919 को हुई 30 हिंदुस्तानियों की हत्या से बुरी तरह आहत थे। हथियार नहीं होने की बात करने वाले हाथ में एक लाठी लिए और बिना उसका बिना प्रयोग किए देश को आजादी के लिए आंदोलन पैदा कर देने वाले गांधी पर भी सवाल खड़ा करते हैं। ध्यान रखें, गांधी की लड़ाई हथियारों से नहीं, विचारों और सिद्धांतों से लड़ी गई। यही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विशेषता है। तर्क का विरोध करने वाले याद कर लें, दक्षिण अफ्रीका को भी गांधीवादियों ने 1980 के दशक में बिना हथियारों की लड़ाई लड़े स्वतंत्र कराया।
यह मुद्दा क्यों -----
1. यह मुद्दा इसलिए कि इतिहासकार, राजनीति वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, कानूनविद, शिक्षाविद सहित समाज का प्रबुद्ध वर्ग विचार कर सके कि कहीं राष्ट्रभक्ति की कमी ही देश के वर्तमान हालात का कारण तो नहीं।
2. यह मुद्दा इसलिए कि देश की समस्याओं के पीछे छीपे असली मर्ज की पहचान की जा सके । कहते हैं कि बीमारी का पता चल जाए तो इलाज आसान हो जाता है।
3. यह मुद्दा इसलिए कि जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, मजहब, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर देश तोड़ने के प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके ।
4. यह मुद्दा इसलिए कि देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखा जा सके । पलायन - भगौड़ापन और भौंड़ापन खत्म हो सके जिसकी वजह से देश का वर्तमान हाल है । पश्चिमी देशों से उधार में मिली दृष्टि के भरोसे देश न रहे ।
भाषण नहीं भागीदारी का वक्त ----
इसलिए जरुरी है, जागो इंडिया जागो !!!
इसके लिए सबसे पहले अमृतसरियों को जागना होगा ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !
पंजाबियों को जागना होगा । देश को नेतृत्व देने का वक्त है ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !!!

Saturday, October 18, 2008

काश ! शिव का विलाप काम आ जाए

काश ! शिव का विलाप काम आ जाए
शिव विलाप कर रहे हैं। यह शिव, शिव चोपड़ा हैं। एनआरआई हैं। 50 साल पहले पढ़ लिखकर भाग गए थे कनाडा। माइक्रोबाइलोजी के विशेषज्ञ हैं। बड़ी - बड़ी दवा कंपनियों में काम किया। कनाडा सरकार को भी हिलाया। स्वीकार रहे हैं कि अपने घर (देश) में भ्रष्टाचार के कारण भागे थे। वैज्ञानिक महोदय साफ सुथरे तरीके से काम करना चाहते थे। बन कर रह गए थे मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ की कठपुतली। जब - जब विरोध किया, मुंह की खानी पड़ी। ज्यादा चालबाजी दिखाई तो कनाडा की संसद ने कानून को ही बदल डाला। जुबान पर ताला लगा दिया। अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों में वही सबकुछ हुआ, जिसके लिए भारत छोड़ा था। अब बूढ़े हो गए हैं तो मुंह उठाए फिर भारत ही लौट आए हैं। बता रहे हैं कि किस तरह कीटनाशक दवाओं से लेकर बीमारियों से लड़ने के लिए टीकों तक का कारोबार होता है। वैक्सिन के नाम पर कितना बड़ा बाजार है। कैसे इनकी वजह से हर आदमी को कैंसर का खतरा हो गया है। देश - विदेश के नेताओं को भी कोस रहे हैं और वैज्ञानिकों को भी। समझा रहे हैं कि पैसों के पीछे किस तरह सभी की नैतिकता बौनी पड़ जाती है। कभी अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में सेमिनार कर रहे हैं तो कभी गरीबों की सेवा में लगी संस्था पिंगलवाड़ा में खड़े होकर देश के पिंगलवाड़ा बन जाने का खतरा बता रहे हैं। कभी गुजरात के अहमदाबाद में जाकर नरेंद्र मोदी को लताड़ रहे हैं। कांग्रेसी हों या भाजपाई, सभी शिव चोपड़ा के निशाने पर हैं। कामरेडों पर भी गुनाह मढ़ने में देरी नहीं कर रहे। तर्कों में दम है। जमीन से जुड़ी बातें कर रहे हैं। गांधी को याद करते हुए दांडी मार्च, नमक सत्याग्रह और अंग्रेजों के भारत से भाग जाने का इतिहास दुहरा रहे हैं। बात बोरिंग हैं परंतु एक तो एनआरआई और ऊपर से पीएचडी विद्वान, देशी विद्वानों की मानों चीर कर हाथ में आ जा रही है। कोई कैसे सवाल उठाए, बाबा शिव 50 साल जो कनाडा में गुजारे तब क्यों नहीं समझ आई। क्या डर नहीं लगना चाहिए। सतर्क नहीं हो जाना चाहिए कि शिव जैसे नामों पर देश के कोने - कोने में भटकने वाले मल्टीनेशनलों के ही एजेंटों की भी कमी नहीं है। कभी एड्स के नाम पर सीरिंज का कारोबार तो कभी हेपेटाइटीस के नाम पर टीके। चेचक के टीके। और अंत में सारा फेल। नया खेल। नया टीका। और तब कंपनियों के बुद्धिजीवी इंप्लांट किए जाते हैं देखने के लिए कि भारत का बाजार कैसा है ? सड़ा - गला माल बेचने की कितनी संभावनाएं हैं ? कहीं विद्रोह तो नहीं हो जाएगा ? शिव की बातों पर कोई सवाल नहीं है। उद्देश्य पर सवाल है। बुद्धि का उपयोग कौन करने जा रहा है ? अभी तक तो शिव चोपड़ा का इस्तेमाल कनाडा, अमेरिका और यूरोप की कंपनियों ने किया। शूट , बूट और टाई वाले शिव , इस देश को न छेड़ो। अभी यह सो रहा है। बेहतर हो यह खुद ही जाग जाए। अपने मिट्टी के प्रति वफादार लोगों द्वारा ही जगा दिया जाए। पूंजीवादी और साम्यवादी के संघर्ष में भारत का असली स्वरूप की खतरे में है। इस देश को जगना होगा। लेकिन जगाने वाला पश्चिम रिटर्न नहीं चाहिए। वैसे कोई एजराज भी नहीं अगर इस शिव का विलाप ही काम आ जाए।

Tuesday, October 7, 2008

अंबिका को दुबारा हुआ ढाई साल पुराना आश्चर्य !


केंद्रीय संस्कृति व पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी को ढाई साल बाद दुबारा आश्चर्य हुआ। इस बार आश्चर्य ढाई साल बाद भी जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं मिल पाने को लेकर था। वह बाग ट्रस्ट की सदस्य भी हैं। 14 अप्रैल 2006 को जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं होने बारे पहली बार खुलासा हुआ था। 24 अप्रैल 2006 को अंबिका सोनी वर्तमान हैसियत में ही अटारी बार्डर पर सुविधाओं के विकास कार्यक्रम में पहुंची थीं। नीम चमेली होटल को अमन - उम्मीद के नए नाम से नया रूप देने का उद्घाटन कर गईं। पहले तो उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था कि जलियांवाला बाग के शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा नहीं है। बाद में आश्चर्यचकित हो गई थीं। अब दिसंबर 2006 से बाग ट्रस्ट में मंत्री की हैसियत से मेंबर भी हैं। ढाई साल बाद अमन - उम्मीद (टूरिस्ट कंप्लेक्स) तैयार हो गया। अंबिका सोनी फिर उद्घाटन करने अमृतसर पहुंचीं। आजादी के 61 बाद जलियांवाला बाग के शहीदों की आत्माओं ने उन्हें फिर आश्चर्यचकित कर दिया हैं । दावे के अनुसार उन्हें दुख है कि अभी भी दर्जा नहीं मिला। पिछले दो-तीन दिनों से शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा दिलाने के प्रयास में लग गई हैं। मानव संसाधन और गृह मंत्रालय से संपर्क साधा है। उनके हाथों में दस्तावेज भी सौंप दिए गए थे। हर पन्ना बोल रहा था, शहीद अभी भी फ्रीडम फाइटर नहीं। परंतु क्या इन शहीदों को अब सिर्फ मंत्री जी का ही आसरा है ? ढाई साल के लिए वह फिर याद भूल गईं तो! पता नहीं अगले साल लोकसभा चुनाव के बाद कौन सत्ता पर काबिज हो जाए। क्या जरूरी नहीं कि देशवासी जागें और अपने शहीदों को सम्मान दिलाएं। हर वर्ग में देशभक्ति का जजबा जगाएं।

Monday, October 6, 2008

जलियांवाला बाग : दीवारों की सही, किस ने सुध तो ली


अमृतसर के जलियांवाला बाग के विकास के नाम पर विरासत से खिलवाड़ के खिलाफ राज्य भर के कामरेड नेताओं ने 6 अक्तूबर को शक्ति प्रदर्शन किया। 102 वर्ष की उम्र में बाबा भगत सिंह बिलगा ने आवाज बुलंद की, `बाग को सैरगाह (पर्यटन केंद्र) बनाने की बात करने वालों, तब कहां थे जब जनरल डायर फायर कर रहा था।' सेहत खराब होने के बावजूद 80 वर्ष की सीमा पार कर चुके सतपाल डांग और विमला डांग चिलचिलाती धूप में भी जमे रहे। ऐसे और भी बुजुर्ग जोड़े मौजूद थे। सवाल खड़ा है, जिस देश बुजुर्गों की चैन छिन जाए, वहां नौजवानों की आह तक नहीं निकले, ऐसा क्यों ? मंच से यह सवाल प्रदर्शनकारी नेताओं ने भी उठाए। औसतन 50 साल से अधिक की उम्र वाले इन कामरेड नेताओं की मांग शहीद उधम सिंह का बुत लगाने और जिस रास्ते `मृतकों' को ले जाया गया उन्हें संभालने और केंद्र सरकार की खोजी कमेटी में कामरेड विद्वानों को शामिल करने जैसी बातों में उलझी दिखी। वह इस शर्म का उल्लेख करना ही `भूल' गए कि आजादी के 61 साल बाद भी शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी (फ्रीडम फाइटर) का दर्जा क्यों नहीं मिल पाया है। क्योंकि फिर जवाब देना पड़ना था कि इसमें कामरेडों की भूमिका क्या रही ? सत्ता से फ्रैंडली मैच खेलने के माहिर अधपकी दाढ़ी (50 से 60 वर्ष वाले) कामरेडों ने बाबा बिलगा से इस बारे एसडीएम को मेमोरेंडम सौंपवाया। 1 नवंबर को जालंधर में गदरी बाबयां दे मेले के बाद आंदोलन तेज करने की घोषणा की गई। लेकिन किसके लिए आंदोलन - मरघकट की दीवारों के लिए ? क्या यह शहीदों का अपमान नहीं ? इसे स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों का पवित्र स्थली के रुप में स्वीकार किए जाने पर ही जीवंत किया जा सकता है। ईंटों के लिए रोने वालों को रूहों की परवाह नहीं रही। कहीं से देश प्रेमी की प्रतिध्वनि आती है -
निजात पा नहीं सकोगे मेरे चले जाने के बाद
मकर्द मेरी यादें गुज़श्ता दिलाएगी।
इसके बावजूद दो राय नहीं कि कामरेडों ने जलियांवाला बाग का मुद्दा पकड़ने में बूत परस्त और धर्म निरपेक्ष, दोनों तरह की पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है। कहा जा सकता है, चलो जलियांवाला बाग के शहीदों को फ्रीडम फाइटर का दर्जा देने के लिए न सही, वहां की दीवारों की ही किसी ने सुध तो ली। परंतु इसके भरोसे काम नहीं चलेगा। युवाओं में देश प्रेम भरना पड़ेगा। नौजवानों को जगना होगा। इसलिए जरूरी है, जागो इंडिया जागो।

Saturday, October 4, 2008

किडनी कसाई कौन : डाक्टर या कानून

किडनी का जिन्न फिर निकला है। वर्ष 2002 से बार - बार निकल रहा है। इस बार पंजाब के वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी किरपाल सिंह की जिंदगी दांव पर है। दूसरी तरफ है अमृतसर निवासी नौजवान सन्नी। घरों में रंग - रोगन कर रोजाना सौ - डेढ़ सौ कमाने वाला। किडनी `दान' करने पर सन्नी के लिए नौकरी, प्लाट और शादी (जर, जोरु और जमीन) की उम्मीदें बंधी थीं। इसी बीच मीडिया ने कर दी गरीब मार ! पूरे मामले का खुलासा कर आपरेशन रुकवा दिया। इन सबके बीच कई बार लगता है, कानून पर सवाल खड़ा करने का हक आम आदमी को नहीं है। कानून को विद्वान सांसद बनाते हैं और कार्यपालिका व न्यायपालिका के बड़े बड़े विद्वान उसे लागू करते हैं। फिर भी 1994 से लागू `किडनी काटो कानून' (ह्यूमन आर्गन ट्रांसप्लांटेशन एक्ट 1994) बार - बार ध्यान खींचता है। 13 साल पुराने इस कानून की विशेषताएं अंदर तक झकझोरती हैं। मानवीयता को रुलाती हैं। इस कानून के तहत अबतक जिन लोगों को सजा हुई है, सभी किडनी देने वाले (डोनर) हैं। किडनी लेने वाले (रेसिपिएंट) या दलालों का यह कानून कभी कुछ नहीं बिगाड़ पाया। कुछ इसी तरह की परिस्थितियों पर इन पक्तियों के शायर का दिल भी रोया होगा ---
बादलों के दरमयां कुछ इस तरह साजिश हुई
मेरा घर मिट्टी का था, मेरे ही घर बारिश हुई
किडनी दान की कानूनी व्यवस्था में पैसों के लेन - देन पर सख्त सजा का प्रावधान है। दूसरी तरफ हर माह 15 से 20 हजार वेतन पाने वाला भी किडनी दान की प्रक्रिया में आपरेशन पर आने वाला डेढ़ - दो लाख का खर्च बिना लोन लिए नहीं झेल सकता। दान तो तभी न कहेंगे, जब किडनी लेने वाले को दाता (डोनर) के आपरेशन पर कोई खर्च नहीं करना पड़े। यानी आपरेशन की अनुमति देने वाली कमेटियों की मुख्य जिम्मेदारी ही यही बनती है कि वह देख ले कि डोनर की आर्थिक स्थिति ठीक है या नहीं। क्योंकि किसकी किडनी किसको लगेगी यह तो विशेषज्ञ डाक्टरों का काम है। किसी जिले का डीसी - एसएसपी इस जन्म में यह तय करने के लिए शायद ही काबिल बन पाए। अब सवाल है कि फिर भी गरीबों की किडनियां क्यों निकलती रही हैं ? उन्हें ही जेल क्यों भेजा जाता रहा है ? अगर किडनी आपरेशन का खर्च कोई और उठा सकता है तो ऐसी व्यवस्था किसकी देन है कि आपरेशन के बाद कम से कम अगले छह महीने तक काम नहीं कर पाने वाले किडनी डोनर को मुआवजे के तौर पर कुछ दिया जाना अपराध हो जाता है। यह कानून सिर्फ किडनी लेने वालों की सुविधा के लिए बना दिखता है जिसमें डोनर के शरीर से किडनी निकालने के बाद उसे दूध से मक्खी की तरह निकाल देने की कठोर व्यवस्था है । डोनर के आपरेशन पर सामने वाला लाखों खर्च करे, तो वह ठीक है। लेकिन डोनर बाद में दवा खाने के लिए हजार रुपये भी ले ले तो गुनाहगार। वाह रे कानून ! वाह रे कानूनविद !! वाह रे कानून बनाने वाले !!! जो डाक्टर लगातार चार - पांच घंटे खड़े रहकर आपरेशन करे, जान बचाए वह कसाई है तो फिर जो कानून गरीब की सेहत छीनने के बाद रोटी के मोहताज बना दे वह .... । उसे क्या कहें ? ऐसा कानून बनाने और उसके जरिए गरीबों को सताने वालों को सजा क्यों नहीं हो ? यह जनता की सरकार है या गरीब मार है। है न गरीब मार ! बदल डालो यह कानून। जागो इंडिया जागो।

Friday, October 3, 2008

Blood donation camp at Jallianwalla Bagh


Amritsar – (October 2) – Today on the occasion of birth anniversaries of Mahatma Gandhi a blood donation camp was organized at Jallianwala Bagh. Different organizations joins their hands under the aegis of `JAGO INDIA JAGO’ movement. Motivation in youth for national pride and homage to Shaheeds of Jallianwala Bagh massacre 13th April 1919 is main target. Getting the status of Freedom fighter for these shaheeds, it was effort in Gandhian mood, `Blood donation in reply of Blood –sahed.’
Members of the NGO said that blood donation camp was organized to awake the Government from deep slumber to grant the status of freedom fighter to the martyrs who were killed during the massacre of April 13, 1919 when Brigadier General Rengield Dyer did indiscriminate firing on innocent freedom fighters.
There was tremendous response came out during the blood donation camp. Sitting BJP MLA Anil Joshi along with numerous of workers appeared to donate blood. Shaheed –E-Azam Sardar Bhagat Singh youth Front (NGO) led by Gurmit Singh also turned up with dozens of people to donate blood.
Director Principal of Spring Dale School Manveen Sandhu along with her school student and teachers also donated blood. Police personnel, media persons and dozens of tourists also voluntarily offered themselves for blood donation on this occasion. President of Jallianwala Bagh Shaeed Parivar Samiti Bhusan Behal was also present on this occasion.
Director of well known NGO Manveen Sandhu told that she was also paying homage through this blood donation camp to her grand father who was the eye witness of the massacre of Jallianwalla Bagh at the age of 20 when he was a student of Khalsa College Amritsar. Latter on her grand father serve as Dist. And Session Judge in Lahor and retired from Ludhiana.
Doctors from Guru Teg Bhadur Hospital of Government Medical College managed the Blood donation camp on the request of convener D.P. Gupta, Retd. Assistant Commissioner of Municipal Corporation Amritsar and co-convener Naresh Johar. President of Indian Medical Association Dr. Amrik Singh Arora, Medical Supritendent or SGTB hospital Dr. R.P..S Boparai, Satish Bhardwaj, Ganesh Poddar are main amongst organizational support.