Tuesday, October 21, 2008

जलियांवाला बाग

घटना के 90 और आजादी के 61 साल बाद जलियांवाला बाग मुद्दे पर नए दृष्टिकोण से चर्चा का अवसर मिलना सौभाग्यपूर्ण है। सौभाग्य इसलिए कि इसी बहाने हमें जीवंतता के साथ इतिहास के पन्नों को खोलने का मौका मिला है। इतिहास में भागीदारी के मार्ग खुले हैं। कुछ बुद्धिजीवियों को सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से घटना क्रम को समझने और सत्य की खोज के लिए नए सिरे से अपने दिमाग को झकझोरने की प्रेरणा भी मिल जाए, तो अमृतसर के खालसा कालेज का यह प्रयास सफल मानना गलत नहीं होगा। यह वही कालेज है जिसके प्रिंसिपल जीएस बैथन ने 14 अप्रैल 1919 को गुरु की नगरी अमृतसर पर हवाई हमले का डटकर विरोध किया। सबक सीखाने को उतावले अपने हम वतनों को रोक दिया था। यह वही कालेज है जहां के बड़ी संख्या में छात्र घटना में प्रत्यक्ष गवाह और भागीदार थे।
चर्चा के केंद्र में घटना की तारीख वही है, 13 अप्रैल 1919। परंतु मरने वालों की संख्या आज भी तय नहीं है। कोई साढ़े तीन सौ, कोई साढ़े चार सौ तो कोई 1300 बताता है। यानी जिस घटना को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा, उसके शहीदों की संख्या आज भी आलू - प्याज या फिर कहें शेयर बाजार की कीमतों की तरह कभी उछाल मारती, तो कभी मुंह के बल गिर पड़ती है। जिस घटना के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि अगर पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश सामाज्य का विस्तार शुरु हुआ था तो जलियांवाला बाग की घटना के बाद अंत। क्या सही में ऐसी थी जलियांवाला बाग की घटना। तो फिर जलियांवाला बाग के शहीद आज भी हमारे फ्रीडम फाइटर क्यों नहीं हैं ? क्या कहा, फ्रीडम फाइटर नहीं हैं ! स्वतंत्रता सेनानी नहीं हैं ? जी हां!
जलियांवाला बाग के शहीद भारत की आजादी के 61 साल बाद भी फ्रीडम फाइटर नहीं हैं।
यही है मेरी तरफ से पूरी चर्चा का केंद्र। बिना किसी लाग लपेट के कहूंगा, यही है भारत की असली तस्वीर। हर साल 13 अप्रैल को यह सुन सुन कर कान पक चुका है ---
`जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करता वह कौम मर जाता है।'
अगर यह सही है तो जलियांवाला बाग के शहीदों को नकारने वाले कौम के बारे में बुद्धिजीवी क्या राय रखेंगे ?
- जवाब होगा, नहीं। हम वाइब्रेंट इंडिया (जीवंत भारत) के नागरिक हैं। तेजी से तरक्की कर रहे हैं। दकियानूस विचारधारा वाले ही कौम के मरने जैसी बात कर सकते हैं। यह देश जीवंत है। जिंदा है।
लेकिन इसे स्वीकारने में असहज नहीं होना चाहिए कि कौम का साइज (आकार) भी आजादी के पहले और बाद के पंजाब के आकार की तरह बड़े से छोटा हो गया है। कंप्यूटर और वैश्वीकरण के दौर में ग्लोबल विलेज की बात करते समय कभी महाराष्ट्र, तो कभी जम्मू कश्मीर, तो कभी नार्थ इस्ट के असम व अन्य राज्यों में कौम के उभरे नए कांसेप्ट पर चर्चा करने को दिल मचल उठता है। तभी तो किसी कवि मन कराह उठता है --
ऐ कौम देख तेरी हालत को क्या हुआ
हैरत में है आईना सूरत को क्या हुआ
जिसने बड़े बड़ों के छक्के छुड़ा दिए
उस शूर - वीर कौम की हिम्मत का क्या हुआ ?
इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े हो जाते हैं -----
- क्या देश के वर्तमान हालात अपने शहीदों और आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की उपेक्षा का नतीजा नहीं है ?
- क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस आजादी का सपना देखा था, वो पूरा हुआ ?
अगर नहीं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का विश्लेषण और जरूरी हो जाता है। एक तरफ बड़ी संख्या में फर्जी फ्रीडम फाइटरों ने आजादी के बाद सरकारी स्कीमों का लाभ उठाया। दूसरी तरफ यह ध्यान देने की जरूरत है कि असली फ्रीडम फाइटर असली आजादी, दूसरी आजादी की बात करते हुए एक के बाद एक कर गुमनामी की मौत मरते गए।
- जरा गौर करें, सत्ता पर कौन काबिज हैं ? जो काबिज हैं, उनकी पिछली पीढ़ियों की कारगुजारियों को जनता के समक्ष रखना बुद्धिजीवियों की खोज का विषय बन सकता है।
इन्हीं वजहों से जलियांवाला बाग जीवंत हो उठता है। जलियांवाला बाग को इतिहास के पन्नों से बाहर निकाल कर देखने और समझने की जरूरत है। पहले चर्चा आम अमृतसरियों में 13 अप्रैल 1919 की घटना बारे सोच की। अमृतसर के लगभग 90 प्रतिशत निवासी लोग मानते हैं कि -----
1. लोग गांवों से बैशाखी मनाने स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। वही जलियांवाले बाग में मेला देखने पहुंच गए थे।
2. अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं।
3. बाग में लोग ताश खेल रहे थे और आराम कर रहे थे, सो रहे थे।
4. मारे गए लोग बाग में टहलने के लिए पहुंचे थे।
5. मारे गए लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोर्चा लेने नहीं गए थे। भाषण सुन रहे थे। ऐसे भी लोग थे जो सिर्फ तमाशा देखने पहुंचे थे।
6. फायरिंग होने पर लोग भागने लगे थे। भगौड़े थे। पीठ में गोलियां खाईं।
7. बाग में लोगों पर फायरिंग एक `घटना' थी, आंदोलन नहीं।
8. घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को तत्कालीन सरकार ने चार हजार से 20 हजार रुपये तक का मुआवजा दे दिया था जो सोने की वर्तमान कीमतों के आधार पर 20 लाख से एक करोड़ रुपये तक बनता है।
और अंत में कुछ नहीं चलता है तो पलायन का फार्मूला है ---
9. कुछ तो कारण होगा जिसकी वजह से नहीं मिला दर्जा।
कितनी गंभीर बात है। कुछ लोग इन बातों को शर्मनाक भी कहेंगे। लेकिन स्वीकारना होगा कि आम लोगों के बीच इस तरह के भ्रम के कारण हैं। यह कुटनीतिक फंडा है, किसी कौम को मारना हो तो उसका सम्मान मार देना चाहिए। किसी को अतिवादी कहकर तो किसी को अति उदारवादी बताकर नकार दो। पूरी व्यवस्था ही नकारी हुई हो जाएगी ।61 सालों में देश का सिर्फ बंटवारा ही तो हुआ है। कभी जाति, धर्म, संप्रदाय और पंथ के नाम पर तो कभी क्षेत्र और भाषा के नाम पर । बिना देरी जवाब भी दिया जाना चाहिए। कितनी गंभीर बात है कि मात्र 90 वर्ष बाद ही हम अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर इतने गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं । इतिहास बदला हुआ है। यानी 90 साल पहले की घटना के बारे हम इतने गलत विचार रख रहे हैं, तो पांच सौ, पांच हजार साल पुराने इतिहास के बारे में हमारी समझ और ज्ञान कितना सही होगा? यह तो इतिहासकार बताएं। सोचें और विचारें । देश के कोने - कोने में ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने फ्रीडम फाइटर के नाम पर दी जाने वाली सुविधाएं नकारीं। क्या हम उन्हें ही नकार कर उनकी शहादत की कीमत दे रहे हैं।देश के हर कोने में ऐसे शहीद हैं जिन्हें हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना । देश के हर इलाके में असली स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान के प्रमाण बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं। देश की प्रगति चाहते हो तो युवाओं मे देश भक्ति का जजबा भरना होगा । अन्यथा प्रतिभाओं के अमेरिका - इंगलैंड पलायन को नहीं रोका जा सकेगा ।बिना लाग लपेट, झूठ फरेब, चिंता फिक्र के बुद्धिजीवियों को बुद्धिजीवी बने रहने का मनोबल तैयार करना होगा । चाटूकारिता छोड़ हमें देश के इतिहास को दिल , दिमाग व दृष्टि के साथ लिखने की हिम्मत करनी होगी। सत्ता पर कब्जे के लिए सच को झूठ बनाने के खेलों को फेल करने के लिए सच्चाइयों का पर्दाफाश करना होगा ।

अब जरा जलियांवाला बाग के शहीदों की उपेक्षा के कारणों पर गौर करें। -----
1. 1947 में भारत - पाकिस्तान बंटवारा हुआ। पंजाब, बंगाल और कश्मीर आदि बंट गए। पहले अमृतसर में मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए लोग यहां दंगे के कारण खाली हुए घरों पर काबिज हो गए। यहीं आजादी के साथ अमृतसर की आबादी ही बदल गई।
2. जलियांवाला बाग में 1919 में मारे गए अधिकांश लोग शहर के निवासी थे। कुछ लोग आसपास के गांवों के भी मारे गए थे। घटना के बाद अमृतसर शहर में गांवों के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय तक पाबंदी रही। मार्शल लॉ लगा दिया गया था। यह बात बताने की जरूरत नहीं कि पहले अधिकांश जाट (सिख) आबादी गांवों में रहती थी। शहर में हिंदू और मुसलमान ज्यादा थे। आजादी के बाद जनसंख्यात्मक ढांचा ही बदल गया।
3. गंभीरता से विचारें - क्या अंग्रेज पहले से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर काम कर रहे थे ? पहले सम्मेलन स्वर्ण मंदिर परिसर में होना था। वहां नहीं होने दिया गया। 1920 से गुरुद्वारा सुधार लहर की शुरुआत हो गई। 1925 में कानून बनाकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक ट्रस्ट (कमेटी) की स्थापन कर दी गई। आजादी की लड़ाई के बीच में ही अलग पहचान के जंग की शुरुआत ! रिसर्च का काम आगे बढ़े तो शायद कुछ मिल जाए। समय और सवाल के तार जुड़ते हैं।
4. मारे गए लोग वैशाखी मनाने वाले नहीं थे। इस भ्रम को ठीक से दूर कर लेना चाहिए कि जलियांवाला बाग में जमा हुए लोगों का वैशाखी से कोई रिश्ता नहीं था। वैशाखी के मौके पर स्नान करने पहुंचने वाले लोग सुबह - सुबह स्नान करते हैं। शाम चार - पांच बजे नहीं। दूर - दूर से आए लोग एक दिन पहले भले ही बाग में ठहरे हों, स्नान के बाद उनके ठहरने का मतलब नहीं। स्पष्टत: लोग सुबह - सुबह ही स्नान करके चले गए थे। घटना के लिए भीड़ का जमा होना दोपहर एक बजे के बाद शुरु हुआ था। फायरिंग की घटना शाम पांच बजे की है।
5. यह कहना भी पूरी तरह गलत और भ्रम फैलाने वाला है कि अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई थीं। अमृतसर पहले से ही रालेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन का केंद्र बना हुआ था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर 30 मार्च और 6 अप्रैल को दिल्ली और मुंबई के साथ अमृतसर में रहा पूर्ण बंद इसका प्रमाण है। 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस का नेतृत्व घोड़े पर सवार होकर डा. हफीज मोहम्मद बशीर द्वारा किया जाना, अमृतसर के तत्कालीन डीसी माईल इरविन का घबराना इसका प्रमाण है कि अंग्रेज अंदर से हिल गए थे। तभी तो 10 अप्रैल को अहले सुबह डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। बदले में हिंसा भड़की और 30 आंदोलनकारी मारे गए।
6. वैशाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 का समागम 10 अप्रैल की हिंसा में मारे गए लोगों के सम्मान में था। शोक सभा थी जिसकी अध्यक्षता डा. सतपाल और डा. किचलू की तस्वीरें कर रही थीं।
7. यह बातें बहुत जोर से हाईलाइट की जाती हैं कि घटना के वक्त लोग बाग में सैर करने, आराम करने और ताश खेलने में व्यस्त थे। यह बहुत बड़ा झूठ है। दावे के साथ कह सकता हूं कि अमृतसर के किसी भी व्यक्ति को याद नहीं होगा कि किसी भी दिन जलियांवाला बाग में एक वक्त में 20 से 22 हजार लोगों का जमावड़ा देखा हो। अब तो वहां की सड़कें चौड़ी हो गई हैं। पहले तो गलियों से होकर बाग में घुसना तो और मुश्किल था। अगर 20 - 22 हजार लोगों में दो - चार - छह सौ लोग सैर, आराम और ताश में व्यस्त भी थे, तो कौन सी बड़ी बात है। इसे इनता मजबूती से क्यों बार - बार दुहराया गया कि हिटलर की रणनीति याद आ जाए, `झूठ को इतनी बार दुहराओ की सच नजर आने लगे।'
8. यह बात पूरी तरह सच है कि बाग में जमा हुए लोगों के पास हथियार नहीं था। यह इस बात को मजबूती ही प्रदान करता है कि लोग शोक व्यक्त करने जमा हुए थे। संघर्ष करने नहीं। जो लोग बाग में जमा हुए थे, सभी वैचारिक तौर पर 10 अप्रैल 1919 को हुई 30 हिंदुस्तानियों की हत्या से बुरी तरह आहत थे। हथियार नहीं होने की बात करने वाले हाथ में एक लाठी लिए और बिना उसका बिना प्रयोग किए देश को आजादी के लिए आंदोलन पैदा कर देने वाले गांधी पर भी सवाल खड़ा करते हैं। ध्यान रखें, गांधी की लड़ाई हथियारों से नहीं, विचारों और सिद्धांतों से लड़ी गई। यही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विशेषता है। तर्क का विरोध करने वाले याद कर लें, दक्षिण अफ्रीका को भी गांधीवादियों ने 1980 के दशक में बिना हथियारों की लड़ाई लड़े स्वतंत्र कराया।
यह मुद्दा क्यों -----
1. यह मुद्दा इसलिए कि इतिहासकार, राजनीति वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, कानूनविद, शिक्षाविद सहित समाज का प्रबुद्ध वर्ग विचार कर सके कि कहीं राष्ट्रभक्ति की कमी ही देश के वर्तमान हालात का कारण तो नहीं।
2. यह मुद्दा इसलिए कि देश की समस्याओं के पीछे छीपे असली मर्ज की पहचान की जा सके । कहते हैं कि बीमारी का पता चल जाए तो इलाज आसान हो जाता है।
3. यह मुद्दा इसलिए कि जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, मजहब, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर देश तोड़ने के प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके ।
4. यह मुद्दा इसलिए कि देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखा जा सके । पलायन - भगौड़ापन और भौंड़ापन खत्म हो सके जिसकी वजह से देश का वर्तमान हाल है । पश्चिमी देशों से उधार में मिली दृष्टि के भरोसे देश न रहे ।
भाषण नहीं भागीदारी का वक्त ----
इसलिए जरुरी है, जागो इंडिया जागो !!!
इसके लिए सबसे पहले अमृतसरियों को जागना होगा ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !
पंजाबियों को जागना होगा । देश को नेतृत्व देने का वक्त है ।
तभी कह सकेंगे, जागो इंडिया जागो !!!

3 comments:

P.N. Subramanian said...

हम अभी सो रहे हैं, मत उठाइए.

अनुनाद सिंह said...

यदि भ्रष्टाचार मिटाने में हम सफल हो गए तो भारत सबसे आगे होगा. कोई नहीं रोक सकता. यही सबसे बड़ी समस्या है और सभी समस्याओं की जड़ है.

राजीव उत्तराखंडी said...

वाकई भारतवासियों को जागने की जरूरत है। कब तक अंग्रेजी पिट्ठ ूआें के लिखे इतिहास और उनके द्वारा फैलाई गई अफवाहों को सत्य मानते रहेंगे। इसलिए जरूरी है कि सत्य को सामने लाया जाए और वह भी निष्पक्ष होकर। आपका प्रयास सराहनीय है सतीश जी।
जगाते रहिए, हम आपके साथ हैं।