Tuesday, January 23, 2018

शिक्षा पर पुनर्विचार करें व्यवस्था के तीनों अंग

बात बेबाक


सतीश श्रीवास्तव


यमुनानगर, लखनऊ और गुरुग्राम। भले तीन शहरों के नाम हों, यहां के स्कूल परिसर खून से लथपथ हैं। जवान होते बच्चों के हाथों में हथियार हैं। शिक्षक से सहपाठी तक निशाने पर आ गए हैं। शिक्षा के मंदिर को आक्रामकता झकझोर रही है। ऐसे में व्यवस्था और व्यवस्थापक मौन नहीं रह सकते। साथ ही राजनीतिक लाभ के लिए किसी को इतना शोर मचाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती कि मुद्दा ही गौण हो जाए। 
घटना स्तब्ध और बेचैन करने वाली है। यमुनानगर के विवेकानंद स्कूल की प्रिंसिपल रितु छाबड़ा की शनिवार दोपहर प्रिंसिपल रूम में घुसकर दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। हत्यारा 12वीं का छात्र है। लोगों ने उसे मौके पर पकड़ लिया। 
यह घटना क्यों हुई? 
ऐसा पहले भी तो हुआ। 

गुरुग्राम के एक स्कूल में पहली कक्षा के छात्र की हत्या के मामले में 11वीं कक्षा का छात्र हिरासत में है। लखनऊ के ब्राइटलैंड स्कूल के पहली कक्षा के छात्र को चाकुओं से जख्मी करने के आरोप में सातवीं कक्षा की छात्र को गिरफ्तार किया गया है। दोनों छुट्टी चाहते थे।
चलें जरा 20 साल पहले। उन्हीं लोगों के स्कूल काल में जिनके बच्चे आज स्कूलों में ऐसे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। आज प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा बढ़ी है पर शिक्षकों की प्रतिबद्धता सवालों में है। पहले शिक्षकों की प्रतिबद्धता, मान - सम्मान और गरिमा की रक्षा छात्र - अभिभावक और समाज की जिम्मेदारी थी। अब अभिभावक और छात्र उपभोक्ता हैं और व्यवस्था कहीं न कहीं पश्चिमी दुनिया की पिछलग्गू दिखती है। वहां 20- 30 साल पहले ही स्कूलों में हिंसा की ऐसी घटनाएं हो रही हैं। सरकार निजी स्कूलों पर दबाव बना सकती है कि मुख्य द्वार पर मेटल डिटेक्टर लगाए, पर यह समाधान नहीं है। शिक्षा व्यवस्था में चार पक्ष हैं। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और समाज। शिक्षक में स्कूल प्रबंधन से लेकर शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक कर्मचारियों को भी शामिल कर लिया जाए। समाज का संबंध व्यवस्था से है। व्यवस्था अर्थात कानून बनाने वाले, उसका पालन करने वाले और उसका पालन सुनिश्चित कराने वाले। अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।

स्कूल में हिंसा की घटनाएं बार-बार हो रही हैं इसलिए समाज अर्थात व्यवस्था सवालों के घेरे में है। गौर करें। शिक्षक और शिक्षा पर पूंजी और प्रभाव हावी है। विचारें, क्या शिक्षक को पेशेवर बनाने की होड़ में शिक्षा के प्रति अनुराग और शौक से उसे दूर कर दिया गया है? नहीं पढ़ने वाले छात्रों को भी अगली कक्षा में भेजने की व्यवस्था ने खालीपन पैदा किया है? साक्षर को शिक्षित घोषित करने का अदृश्य दबाव है। इससे उबरना होगा। गुनहगार बनाने और फिर उसे खोजने वाली व्यवस्था को जवाबदेही लेनी होगी। सरकारी स्कूलों को गर्त में ले जाने के बाद औसत आमदनी वाले शहरी लोग शिक्षा के लिए निजी स्कूलों की तरफ पलायन कर चुके हैं। दूसरी तरफ कानून ऐसे बन चुके हैं कि हर गड़बड़ी के लिए शिक्षक ही गुनहगार हैं। निजी स्कूलों के शिक्षक कितने डरे और सहमे हुए हैं, इसके लिए जमीनी स्तर पर अध्ययन की जरूरत है। एक तरफ नौकरी का डर दूसरी तरफ ट्यूशन फीस भुगतान करने वाले छात्र-अभिभावक का डर। तीसरी तरफ समाज - व्यवस्था का डर। सभी पक्षों को विचार करना होगा कि शिक्षकों का सम्मान और गरिमा कैसे कायम हो। ध्यान रहे, किसी भी मंदिर की प्रतिष्ठा उसके पुजारी ही बढ़ाते हैं। वहां लाखों करोड़ दान करने वाले दाता - पूंजीपति और व्यवस्थापक नहीं।