Saturday, October 4, 2008

किडनी कसाई कौन : डाक्टर या कानून

किडनी का जिन्न फिर निकला है। वर्ष 2002 से बार - बार निकल रहा है। इस बार पंजाब के वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी किरपाल सिंह की जिंदगी दांव पर है। दूसरी तरफ है अमृतसर निवासी नौजवान सन्नी। घरों में रंग - रोगन कर रोजाना सौ - डेढ़ सौ कमाने वाला। किडनी `दान' करने पर सन्नी के लिए नौकरी, प्लाट और शादी (जर, जोरु और जमीन) की उम्मीदें बंधी थीं। इसी बीच मीडिया ने कर दी गरीब मार ! पूरे मामले का खुलासा कर आपरेशन रुकवा दिया। इन सबके बीच कई बार लगता है, कानून पर सवाल खड़ा करने का हक आम आदमी को नहीं है। कानून को विद्वान सांसद बनाते हैं और कार्यपालिका व न्यायपालिका के बड़े बड़े विद्वान उसे लागू करते हैं। फिर भी 1994 से लागू `किडनी काटो कानून' (ह्यूमन आर्गन ट्रांसप्लांटेशन एक्ट 1994) बार - बार ध्यान खींचता है। 13 साल पुराने इस कानून की विशेषताएं अंदर तक झकझोरती हैं। मानवीयता को रुलाती हैं। इस कानून के तहत अबतक जिन लोगों को सजा हुई है, सभी किडनी देने वाले (डोनर) हैं। किडनी लेने वाले (रेसिपिएंट) या दलालों का यह कानून कभी कुछ नहीं बिगाड़ पाया। कुछ इसी तरह की परिस्थितियों पर इन पक्तियों के शायर का दिल भी रोया होगा ---
बादलों के दरमयां कुछ इस तरह साजिश हुई
मेरा घर मिट्टी का था, मेरे ही घर बारिश हुई
किडनी दान की कानूनी व्यवस्था में पैसों के लेन - देन पर सख्त सजा का प्रावधान है। दूसरी तरफ हर माह 15 से 20 हजार वेतन पाने वाला भी किडनी दान की प्रक्रिया में आपरेशन पर आने वाला डेढ़ - दो लाख का खर्च बिना लोन लिए नहीं झेल सकता। दान तो तभी न कहेंगे, जब किडनी लेने वाले को दाता (डोनर) के आपरेशन पर कोई खर्च नहीं करना पड़े। यानी आपरेशन की अनुमति देने वाली कमेटियों की मुख्य जिम्मेदारी ही यही बनती है कि वह देख ले कि डोनर की आर्थिक स्थिति ठीक है या नहीं। क्योंकि किसकी किडनी किसको लगेगी यह तो विशेषज्ञ डाक्टरों का काम है। किसी जिले का डीसी - एसएसपी इस जन्म में यह तय करने के लिए शायद ही काबिल बन पाए। अब सवाल है कि फिर भी गरीबों की किडनियां क्यों निकलती रही हैं ? उन्हें ही जेल क्यों भेजा जाता रहा है ? अगर किडनी आपरेशन का खर्च कोई और उठा सकता है तो ऐसी व्यवस्था किसकी देन है कि आपरेशन के बाद कम से कम अगले छह महीने तक काम नहीं कर पाने वाले किडनी डोनर को मुआवजे के तौर पर कुछ दिया जाना अपराध हो जाता है। यह कानून सिर्फ किडनी लेने वालों की सुविधा के लिए बना दिखता है जिसमें डोनर के शरीर से किडनी निकालने के बाद उसे दूध से मक्खी की तरह निकाल देने की कठोर व्यवस्था है । डोनर के आपरेशन पर सामने वाला लाखों खर्च करे, तो वह ठीक है। लेकिन डोनर बाद में दवा खाने के लिए हजार रुपये भी ले ले तो गुनाहगार। वाह रे कानून ! वाह रे कानूनविद !! वाह रे कानून बनाने वाले !!! जो डाक्टर लगातार चार - पांच घंटे खड़े रहकर आपरेशन करे, जान बचाए वह कसाई है तो फिर जो कानून गरीब की सेहत छीनने के बाद रोटी के मोहताज बना दे वह .... । उसे क्या कहें ? ऐसा कानून बनाने और उसके जरिए गरीबों को सताने वालों को सजा क्यों नहीं हो ? यह जनता की सरकार है या गरीब मार है। है न गरीब मार ! बदल डालो यह कानून। जागो इंडिया जागो।

3 comments:

सुप्रतिम बनर्जी said...

सतीश भाई,
अच्छा लिखा है। लेकिन हमारे देश की विडंबना यही है कि हम आज भी अंग्रेज़ों के ज़माने का कानून ही झेल रहे हैं। पता नहीं हमारे देश के लोग, राजनेता और नीति नियंता कब जागेंगे?
बेहतर पोस्ट के लिए शुभकामनाएं।

Anil Pusadkar said...

शानदार और धारदार्।जारी रखे जगाना कभी तो जागना ही पडेगा और हां ये वर्ड वेरिफ़िकशन का टैग हटा दें तो अच्छा रहेगा।

krantikari said...

Bhai Sahab pehel achhi hai.ummeed hai ki ab india ke kuch log jaroor jaag jayenge aur phir kaarwan banega. main bhi aapke saat hun. good luck.