गेहूं की फसल तैयार हो और उसमें आग लग जाए।
किसान के हिस्से क्या बचेगी? ...खाक..।
भुगतेगा कौन? सिर्फ किसान और लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार।
पांच साल के प्रदर्शन के आधार पर चुनावी फसल काटने को तैयार नेता या सरकार के हिस्से क्या आएगा?
किसान वोटरों की नाराजगी।
फिर सवाल, इस आग से नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार?
बिजली निगम, फायर ब्रिगेड विभाग, जिला प्रशासन, शीर्ष नौकरशाह, तेज हवाएं, सरकार, नेता या किसान?
सवाल इसलिए ज्वलंत हो उठा क्योंकि प्रदेश में अब तक 2000 एकड़ से अधिक में गेहूं की तैयार फसल राख हो चुकी है। मौसम चुनावी है। इसलिए प्रभाव भी बहुआयामी होगा।
जिम्मेदारी तय करने और मुआवजा भुगतान के लिए कमेटियां गठित होंगी। सनद रहे, यह आगजनी प्राकृतिक आपदा नहीं है, इसलिए बीमा का भुगतान नहीं सकता हो। .. और मुआवजा भुगतान? ध्यान रहे, चुनाव आचार संहिता लागू है। अभी तरह तरह की जांच प्रक्रियाएं चलेंगी। जब तक कुछ राहत मिलेगी तब तक गेहूं और चुनाव, दोनों का मौसम निकल चुका होगा। किसान अपनी आमदनी से उल्लास की अनुभूति नहीं कर पाएगा और चुनाव आचार संहिता से प्रभावित अधिकार विहीन नेता नाराजगी भुगतने को अभिशप्त होंगे। न कुछ कर सकते न कुछ बोल सकते।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की रग-रग से जनता परिचित है। आज तक किसी भी घटना-दुर्घटना के लिए व्यवस्था और व्यवस्थापक कभी दोषी नहीं रहे। या तो जनता दोषी होती है या सरकार। मुश्किल है कि इस समय सरकार ग्रहणकाल में है। सवाल फिर जागा। तो फिर आग के लिए जवाबदेह कौन?
वैसे जांच एजेंसियों की चले तो वैशाख के महीने में पछुआ हवा को ही आगजनी के लिए मुख्य दोषी ठहरा दें। कायदे का तार्किक जवाब - आगजनी की दोषी तेज हवाएं हैं। क्यों? क्योंकि न तेज हवाएं होतीं, न बिजली के तार आपस में टकराते, न चिंगारी निकलती, न गेहूं में आग लगती, न फायरब्रिगेड की गाड़ी की परीक्षा होती, न सरकारी अधिकारियों को कमरों से बाहर निकलना पड़ता, न शीर्ष नौकरशाहों को ससमय योजना नहीं बनाने और कार्यान्वयन नहीं होने पर चिंता करनी पड़ती, न सरकार की बदनामी होती।
वैसे मूल दोष तो किसान का ही है न, जिसने गेहूं की फसल को हवाएं चलने से पहले काट नहीं लिया। इसलिए उसे ही भुगतना होगा। भुगतान के बारे में चुनाव बाद सोचेंगे।निश्चिंत रहें। इस प्रकरण में वह कहीं नहीं फंसेंगे जिन्होंने फायर ब्रिगेड को पंगु बना दिया है। न पूरे कर्मचारी हैं और न ही संसाधन है। मुआवजा कब मिलेगा? पता नहीं।
चुनाव आचार संहिता का समय है। जिला सचिवालयों पर पहुंचने वाले किसानों की स्थिति की लाइव कल्पना करें ..किसान हाथ जोड़े हुजूर के दरबार में महीनों चक्कर लगाएगा। सारी मेहनत मिट्टी में और वह गिड़गिड़ाएगा। चपरासी, बाबू, अफसर समझाएगा।
मुश्किलें .. वैशाख के करार पर खरीदे गये सामानों का भुगतान कैसे होगा। लिए गए कर्ज पर ब्याज को किसान कैसे रोके?
हालात .. फसल में आग लग चुकी है। सूचना फाइलों में दर्ज हो गई है। लोकतंत्र में जनता ही सरकार है। सरकार ही जनता है। जनता जाने और सरकार। फिलहाल चुनाव आचार संहिता लागू है।
किसान के हिस्से क्या बचेगी? ...खाक..।
भुगतेगा कौन? सिर्फ किसान और लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार।
पांच साल के प्रदर्शन के आधार पर चुनावी फसल काटने को तैयार नेता या सरकार के हिस्से क्या आएगा?
किसान वोटरों की नाराजगी।
फिर सवाल, इस आग से नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार?
बिजली निगम, फायर ब्रिगेड विभाग, जिला प्रशासन, शीर्ष नौकरशाह, तेज हवाएं, सरकार, नेता या किसान?
सवाल इसलिए ज्वलंत हो उठा क्योंकि प्रदेश में अब तक 2000 एकड़ से अधिक में गेहूं की तैयार फसल राख हो चुकी है। मौसम चुनावी है। इसलिए प्रभाव भी बहुआयामी होगा।
जिम्मेदारी तय करने और मुआवजा भुगतान के लिए कमेटियां गठित होंगी। सनद रहे, यह आगजनी प्राकृतिक आपदा नहीं है, इसलिए बीमा का भुगतान नहीं सकता हो। .. और मुआवजा भुगतान? ध्यान रहे, चुनाव आचार संहिता लागू है। अभी तरह तरह की जांच प्रक्रियाएं चलेंगी। जब तक कुछ राहत मिलेगी तब तक गेहूं और चुनाव, दोनों का मौसम निकल चुका होगा। किसान अपनी आमदनी से उल्लास की अनुभूति नहीं कर पाएगा और चुनाव आचार संहिता से प्रभावित अधिकार विहीन नेता नाराजगी भुगतने को अभिशप्त होंगे। न कुछ कर सकते न कुछ बोल सकते।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की रग-रग से जनता परिचित है। आज तक किसी भी घटना-दुर्घटना के लिए व्यवस्था और व्यवस्थापक कभी दोषी नहीं रहे। या तो जनता दोषी होती है या सरकार। मुश्किल है कि इस समय सरकार ग्रहणकाल में है। सवाल फिर जागा। तो फिर आग के लिए जवाबदेह कौन?
वैसे जांच एजेंसियों की चले तो वैशाख के महीने में पछुआ हवा को ही आगजनी के लिए मुख्य दोषी ठहरा दें। कायदे का तार्किक जवाब - आगजनी की दोषी तेज हवाएं हैं। क्यों? क्योंकि न तेज हवाएं होतीं, न बिजली के तार आपस में टकराते, न चिंगारी निकलती, न गेहूं में आग लगती, न फायरब्रिगेड की गाड़ी की परीक्षा होती, न सरकारी अधिकारियों को कमरों से बाहर निकलना पड़ता, न शीर्ष नौकरशाहों को ससमय योजना नहीं बनाने और कार्यान्वयन नहीं होने पर चिंता करनी पड़ती, न सरकार की बदनामी होती।
वैसे मूल दोष तो किसान का ही है न, जिसने गेहूं की फसल को हवाएं चलने से पहले काट नहीं लिया। इसलिए उसे ही भुगतना होगा। भुगतान के बारे में चुनाव बाद सोचेंगे।निश्चिंत रहें। इस प्रकरण में वह कहीं नहीं फंसेंगे जिन्होंने फायर ब्रिगेड को पंगु बना दिया है। न पूरे कर्मचारी हैं और न ही संसाधन है। मुआवजा कब मिलेगा? पता नहीं।
चुनाव आचार संहिता का समय है। जिला सचिवालयों पर पहुंचने वाले किसानों की स्थिति की लाइव कल्पना करें ..किसान हाथ जोड़े हुजूर के दरबार में महीनों चक्कर लगाएगा। सारी मेहनत मिट्टी में और वह गिड़गिड़ाएगा। चपरासी, बाबू, अफसर समझाएगा।
मुश्किलें .. वैशाख के करार पर खरीदे गये सामानों का भुगतान कैसे होगा। लिए गए कर्ज पर ब्याज को किसान कैसे रोके?
हालात .. फसल में आग लग चुकी है। सूचना फाइलों में दर्ज हो गई है। लोकतंत्र में जनता ही सरकार है। सरकार ही जनता है। जनता जाने और सरकार। फिलहाल चुनाव आचार संहिता लागू है।
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