जलियांवाला बाग के शहीदों के बहाने
जलियांवाला बाग के शहीदों की याद में, उन्हें और उनके परिजनों को सम्मान दिलाने की खातिर मेरे मित्रों सतीश चंद्र श्रीवास्तव ने, फिर एम. अखलाक ने, फिर रविकांत ने जो कुछ लिखा, कहा और जितना आक्रोश व्यक्त किया, वह सिर्फ उस मानवीय संवेदना को ही उभारते हैं, जहां से इंसानी कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता सक्रिय होती है। पर, राजकाज इससे इतर चीज है। क्या है राजकाज, इसे जानने के लिए थोड़ा गांधी को पढ़ना होगा, थोड़ा लोहिया को और थोड़ा जयप्रकाश को भी। इसके बाद आजादी प्राप्ति के बाद से राजकाज का पल में तोला, पल में मासा वाले मिजाज को भी गहराई से समझना होगा। इतने के बाद यदि समझदारी बची रहे तो कीजिए जलियांवाला बाग के शहीदों और उनके परिजनों को खोजने का काम।
लोहिया जीवन भर चिल्लाते रहे, समाजवाद की बात करते रहे, असली हिन्दुस्तान का राग अलापते रहे, पर न महात्मा गांधी ने उनकी सुनी, न जवाहर लाल ने। इंदिरा गांधी के काल में तो लोहिया ने भी मान लिया था कि अव उनके अवसान का समय आ गया है और वे भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जयप्रकाश का भी कमोबेश यही हाल रहा। चमकते सूरज की तरह प्रतिभा रखने वाले और पूज्य बापू की तरह गांव और गरीबों के पक्षधऱ इस दिव्य ज्योति के जीवन में ही सर्वोदय का सूरज डूब गया था। देश भर में आज भी इसका दर्द महसूस किया जाता है। रुंधे गलों के साथ यह आम सुना जाता है कि जेपी के चेलों ने भी जेपी की राह पर चलना गंवारा नहीं किया। हां, एक नीतीश बचे हैं, जो जेपी आंदोलनकारियों को पेंशन दे रहे हैं और इस पर कई टीका टिप्पणियां चल रही हैं।
आजादी प्राप्ति के अभी महज ६२ वर्ष ही तो हुए हैं और गैट से गुजरते हम अमेरिका की तर्ज पर छब्बीस बाई ग्यारह मना रहे हैं। तालिबान और अलकायदा देश में घुस कर फुंफकार रहे हैं। चीन अरुणाचल में बाजा बजा रहा है, नेपाल की सरकार विरोध में खड़ी है, जबकि बांग्लादेश हमारे सैनिकों की लाशों को हमारे पास भेज रहा है। देश के अंदर देखते-देखते प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक उड़ा दिए जा रहे हैं। कब किस मुख्यमंत्री का हेलिकाप्टर गायब हो जाए और बाद में उसकी लाश बरामद हो, कहा नहीं जा सकता। कभी छह घंटे काम को सर्वाधिक मान कर शान से घर जाकर हसीन सपने देखने वाली जमात २४ में १६-१६ घंटे काम कर रही है और वह इस दुर्दशा को किसी के सामने कह तक नहीं पा रही है। आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।
ऐसे में भाइयों ने जलियांवाला बाग का मामला उठा दिया है, वहां शहीद हुए जांबाजों का मामला उठा दिया है, उन शहीदों के परिजनों की खोज का मामला उठा दिया है। मैं यह नहीं कहता कि गलत किया है। सही किया है। शुरू में ही कह दिया कि ये मानवीय कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता के सक्रिय होने का शुरूआती लक्षण है। पर, जहां जिंदा तस्वीरें अपने ही देश में (कभी मुंबई में तो कभी असम में तो कभी पंजाब में) गद्दार और बाहरी का तमगा हासिल कर जिल्लत झेल रही हो, जिन्हें शहीद बना देने के लिए पूरी की पूरी कौम आमादा हो और उन्हें कोई रोक नहीं पा रहा हो, वैसी हालत में जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए मैं किस दिल से उम्मीद पालूं, मुझे समझ में नहीं आता। सतीश भाई की आवाज कौन सुनेगा, यह समझ में नहीं आता। यह समझ में नहीं आता कि पार्टियों दर पार्टियों में बंटे देश, जातियों दर जातियों में बंटे मुल्क, पैसे दर पैसे में फंसे वतन की तकदीर आखिर जिन लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है, उन हाथों से जलियांवाला बाग की तकदीर आखिर फिर से कैसे लिखी जा सकेगी? आखिर कैसे??
कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।
Posted by Kaushal at 12:02 AM
Reactions:
7 comments:
देवेन्द्र said...
आपके विचार से मैं सहमत हूं। देश की वर्तमान हालत चिंताजनक है। महंगाई बेलगाम हो चुकी है, अपराध औऱ आतंकवाद चरम पर है। क्षेत्रीयतावाद का बोलवाला है। ऐसे में शहीदों की ओर किसका ध्यान जाता है?
December 19, 2009 7:14 PM
ब्रजेश said...
आलेख बड़ी चिंता की ओर ले जा रहा है। इन चिंताओं का समाधान किए बिना देश बचने वाला भी नहीं। देखें हमारे सिरमौरों को कुछ ख्याल आता भी है या नहीं?
December 19, 2009 7:18 PM
chandra said...
कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।
वाह क्या बात कही।
December 19, 2009 7:20 PM
संजीव तिवारी .. Sanjeeva Tiwari said...
सत्य कह रहे हैं आप, जिन लोगों को यह आलेख पढना चाहिए वे तो खर्राटे ले रहे हैं.
धन्यवाद धारदार विचार के लिए.
December 19, 2009 8:58 PM
एम अखलाक said...
हां, जेपी की राह पर चलना इसलिए जरूरी नहीं है कि ये भटके हुए समाजवादी थे। नीतीश का आपने इकलौता चेला घोषित करने की कोशिश की है। लाठी तो लालू यादव खाए थे, पीठ पर। लेकिन मैं इन दोनों को समाजद्रोही मानता हूं। दोनों की कार्यशैली में कोई फर्क नहीं। एक बड़बोला है तो दूसरा घुईंसमुंह।
बढ़िया बीज से ही अंकुरण की उम्मीद किसानों को होती है। जेपी के रास्ते दुरुस्त होते तो ऐसे चेले पैदा नहीं हुए होते। इसलिए जेपी के लोगों की वकालत बंद कीजिए। अब तो जेपी आंदोलनकारी ही जेपी के इन चेलों को खारिज कर रहे हैं। आइए मिलकर सोचें नया रास्ता क्या हो सकता है।
December 20, 2009 1:29 PM
Devendra said...
आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।
--बहुत खूब.
December 20, 2009 6:01 PM
mitthu said...
आपके ब्लॉग से कुछ दिन दूर रहने के लिए खेद है
घटाटोप की स्थिति है इस वक़्त । विचारधारा के स्तर पर भी और राजनितिक परिदृश्य के लिहाज से भी। आपकी चिंता यह अहसास करती है कि विचारों का द्वंद्व जारी है। एक समाधान जरूर निकल आएगा...
भवेश
December 20, 2009 6:22 PM
Wednesday, February 10, 2010
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