Saturday, September 25, 2010

सिर के बल खड़ी व्यवस्था

कोई भी व्यवस्था बाशिंदों के आम हितों का पोषण और संरक्षण करने के उद्देश्य से ही स्थापित होती है। चाहे वह जंगल का कानून हो या सभ्य मानव समाज का। अगर इन बातों में दम है तो वर्तमान भारतीय व्यवस्था पर भी गौर करना पड़ेगा। सब कुछ सिर के बल नजर आने लगेगा। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो टॉप पर वह बैठे हैं, जिन्हें कभी गली के चौराहों पर ही जगह मिलती थी। बचपन में इलाके और मोहल्ले के बुजुर्ग जिन बच्चों को पढ़ने - लिखने वाला, समझदार, बुद्धिमान, ईमानदार कहते थे, आज सत्ता के बाजार वाली व्यवस्था में उनकी कहीं पूछ नहीं। जिन्होंने मारपीट की, लफंगा घोषित कर दिए गए, कोई नौकरी नहीं मिली, बदली परिस्थितियों में मालिक बन गए। प्रतिभावानों में भी सिर्फ वही टॉप पर पहुंचने के काबिल बन पाए जिन्होंने मक्कारी या चापलूसी में से एक को अपना लिया। दिमाग पहले से तेज था ही, पहले किंगमेकर की भूमिका निभाई और फिर किंग बन गए। सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए।
बातें कुछ अटपटी सी हैं। सीधे समझ भी नहीं आती। लेकिन यही हकीकत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगल बगल झांकने पर सबकुछ साफ हो जाता है। जो नहीं पढ़ सके, नेता बन सरकार चला रहे हैं। दूसरी तरफ डाक्टर और इंजीनियर हैं। यह या तो अमेरिका, यूरोप और जापान भाग रहे हैं या फिर मैनेजर बनने की जुगाड़ में लगे हैं।
तभी तो बाबा आदम के जमाने के दूसरा भगवान कहा जाने वाला डाक्टर और वैद्य अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं ला रहा। पुरानी अवधारणा तेजी से बदल रही है। कार्पोरेट कल्चर के साथ नए भगवान उभरे हैं। नाम मिला है मैनेजर और काम मिला है विशेषज्ञों की विशेषज्ञता ( एक्सपर्ट आफ एक्सपर्टीज) का। पिछली सदी के अस्सी व नब्बे के दशक में डाक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद टेक्नोक्रेटों में विदेश भाग जाने या फिर आईएएस \ आईपीएस (भारतीय प्रशासनिक सेवाओं) बन जाने की होड़ लगी थी। अब उन्हीं इंजीनियरों - डाक्टरों के साथ-साथ आईएएस \ आईपीएस भी एमबीए की डिग्री लेकर कार्पोरेट का हिस्सा बन रहे हैं। यही है काल चक्र। लेकिन सत्य वहीं खड़ा है। सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के हाथों में जीवन में धुरी है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नए अवतार मैनेजर्स हैं जिनकी पलकों के झपकने से पूरी धरती हिलने लगती है। सामानों की कीमतें बढ़ और घट जाती हैं। गरीबी और भुखमरी पर चर्चा कभी आउट डेटेड विषय हो जाते हैं तो कभी जीवंत। समझने - समझाने की ज्यादा जरूरत नहीं कि लोकतंत्र के नए मालिक कौन हैं। सरकार उसी की बनेगी जिसे भगवान के नव अवतार चाहेंगे। सरकारी सेहत व्यवस्था बिना दवाई और डाक्टर की ओर बढ़ गई है। किसी को भी यह सोचकर भयभीत होने की छूट दी जा सकती है कि वह सोचे कि तब क्या होगा जब डाक्टर सिर्फ कार्पोरेट अस्पतालों में होंगे।
इनमें दो राय नहीं कि काल के चक्र में कर्म की प्रतिष्ठा भी उपर-नीचे घूमती है। सामाजिक ताने-बाने को गणित के आंकड़ों के साथ समझ पाना कभी आसान भी नहीं रहा। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में कभी श्रेष्ठ जन माने जाने वाले पंडितों की प्रतिष्ठा कुछ ऐसी ही थी। इन्हीं में से कोई वेदों का ज्ञाता था तो कोई वैद्य था। इनके दर्शन और ज्ञान के भंडार का पूरा समाज सम्मान करता था। संभव है एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान भंडार सिमट जाने के कारण `पंडित ' शब्द की प्रतिष्ठा गिर गई हो। यह बातें ब्रह्मज्ञानी रहे ब्राह्मण परिवारों की `समाजवादी' दृष्टि वाली नई पीढ़ी से भी सुनी जा सकती है। वह भी अपनी जाति पर समाज के अन्य वर्गों व जातियों के साथ अत्याचार करने के आरोप कई-कई उदाहरणों के साथ लगाते हैं।
समाज की चिंता का मुख्य विषय किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष के हितों की रक्षा होना या नहीं होना, नहीं हो सकता। प्रतिभाओं का संरक्षक नहीं हो पाना और उनका भटकाव समाज के लिए चुनौतीपूर्ण मुद्दा जरूर होना चाहिए। खूंखार अपराधियों के दिमागी परीक्षण में भी यह खुलासे हुए हैं कि उनकी प्रतिभा का समाज हित में उपयोग काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता था। सभ्य समाज में कोई व्यवस्था, चाहे वह लोकतांत्रिक हो या राजशाही, आदर्श उद्देश्य प्रतिभा का सम्मान ही होना चाहिए। वर्तमान दौर कर्म की प्रतिष्ठा परिवर्तन का दौर बना है। कुछ जगहों पर नजर भी आ रहा है कि कार्पोरेट की नई उभरती दुनिया में वही श्रेष्ठ है जिसकी तरफ पैसा पानी की तरह बहता हो। इस कड़ी में यह कहना थोड़ा तल्ख होगा कि जो बिना जबावदेही के प्रतिमाह लाखों से करोड़ों की आमदनी की ओर बढ़ गया, वही सर्वश्रेष्ठ हैं। शेयर बाजार घुलटनिया खा जाए (लुढ़क जाए) तो बड़े खिलाड़ियों का कोई दोष नहीं। वह इतना कमा चुके होते हैं कि विश्व के धनाड्यों में ही शामिल रहेंगे। गुनाह तो उन छोटे निवेशकों, दुकानदारों, कारोबारियों और उद्यमियों का है, जो लालची बन गए। सही कहें तो लालची बना दिया गया। उद्योग - कारोबार बंद कर पैसे शेयर में लगा दिए। अब कर्जदार बन गए हैं।
अब मूल मुद्दे पर चर्चा जरा विस्तार से। दो से ढाई दशक पहले तक दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद जिन विद्यार्थियों को मेडिकल (जीव विज्ञान) और नान मेडिकल (गणित) की पढ़ाई का मौका नहीं मिलता था, सामान्यत: वही कामर्स से प्लस टू करते थे। आमतौर पर जो विद्यार्थी ज्यादा कमजोर होते थे, वही आट्रर्स की पढ़ाई करते थे। माता-पिता अपने प्रतिभावान बच्चों को डाक्टर और इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। सालों बाद भी मेडिकल कालेजों की संख्या में बहुत इजाफा नहीं हो सका है। सेहत सुविधाओं को हर आदमी तक पहुंचाने के लिए डाक्टरों की संख्या आज भी कम है। इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ी है। कंप्यूटर और कम्युनिकेशन सहित अन्य नए रास्ते भी विस्तारित हुए हैं। लेकिन वक्त, चाहत और प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। सिर्फ समाज के लिए जीना अब किसी सिद्धांत में नहीं आता। अब तो समाज सेवा भी पेशा है। एनजीओ बनाओ, खूब कमाओ।
बात को दशक पहले तक प्रतिभा के आधार पर पेशे की तरफ केंद्रित किया जाए तो विज्ञान के विद्यार्थियों को समाज में प्रतिभावान माना जाता था। प्लस टू या हायर सेकेंडरी में मेडिकल और नान मेडिकल छात्रों की संख्या लगभग बराबर होती थी। लेकिन डाक्टरी की सीटें कई गुना कम होने के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज का सबसे प्रतिभाशाली हिस्सा सरकारी मेडिकल कालेजों से डाक्टर या फिर आईआईटी जैसी प्रतिष्ठा संस्थाओं से इंजीनियर बनकर पेशेवर जीवन की शुरूआत करता था। तीसरे स्थान पर उन प्रतिभाओं को रखा जा सकता है जो उच्च शिक्षा और शोध ( रिसर्च) का लक्षय कर पढ़ाई आगे बढ़ाते और सफलता पाते हैं। प्लस टू के बाद देश व प्रदेश स्तर पर आयोजित होने वाले एनडीए (नैशनल डिफेंस एकेडमी) या घर की स्थिति अच्छी न होने के कारण प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हो अन्य सरकारी नौकरियों में चुने जाते थे। इन्हीं के साथ प्रतिभा के चौथे स्थान पर मजबूर पारिवारिक आर्थिक स्थिति वाली प्रतिभाओं को सम्मान दिया जा सकता है जिन्होंने कारोबार को विस्तार दिया। औद्योगिक क्रांति में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद राष्ट्रीय व प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं की बारी आती है। इसमें चयनित होने वाली प्रतिभाओं में ट्रिक्स का खेल काफी दिनों चलता रहा जिसमें संस्कृत, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन या समाज शास्त्र जैसे विषय लेकर कार्यपालिका की शीर्ष व्यवस्था तैयार होती रही। डाक्टरों और इंजीनियरिंगों को भी इस बात का अहसास हुआ कि उनके हुकमरान प्रतिभा के मामले में किस स्तर पर हैं। देश की श्रेष्ठ मेडिकल व इंजीनियरिंग प्रतिभाओं ने लगातार कई कई सालों तक यूपीएससी ( यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन) की परीक्षाओं में टॉप पोजिशनें हासिल कर इस तथ्य को स्थापित किया तथा कार्यपालिका पर कब्जा करते रहे। अपवादों को छोड़ प्रतिभा व्यवस्था में सामान्य रूप से छठे स्थान पर वह हैं जिनकी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते-करते उम्र निकलने लगी। लॉ कालेज में दाखिला ले लिया। कानून की पढ़ाई पूरी कर न्यायपालिका के प्रतिनिधि बन गए। इसके आगे कानून के वह माहिर विद्यार्थी रहे जो दिल्ली के चांदनी चौक, लखनऊ के हजरतगंज और पटना के गांधी मैदान के आसपास के चौक चौराहों से फुर्सत नहीं निकाल सके। चाकू गाढ़कर डिग्री हासिल की और नेता बन गए। नजरें जरा गौर से घुमाने की जरूरत है। ऐसी कई हस्तियां उभर कर सामने आ जाती हैं। यह है लोकतांत्रिक भारत के सिरमौर विधायिका के प्रतिनिधि।
यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका सर्वश्रेष्ठ है। विधायिका कानून बनाती हैं और न्यायपालिक उसके आधार पर फैसले सुनाती है। कार्यपालिका उसका पालन करती है। जैसे एक बार संसंद से यह कानून पास हो जाए कि विरासत केंद्रों (हेरिटेज सेंटरों) से 100 गज की दूरी के अंदर कोई निमार्ण नहीं कराया जा सकता, तो आर्कोलॉजिक सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) उसका पालन करेगी। इससे आगरा में ताजमहल के आसपास के निमार्ण वैध हो गए। भले ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को पिछली बार सत्ता में रहते हुए उक्त अनुमति देने के लिए कानूनी कठघरे में खड़ा किया हो। यही है मैनेजमेंट! लंबी सोच । दूर दष्टि। अब प्राइवेट पार्टियों और प्रोपटी डीलरों के सामने पुलिस क्या कर लेगी? यह काम कोई डाक्टर या इंजीनियरिंग तो कर ही नहीं सकता। यह तो पीपीपी का एक नया फार्मूला है जिसमें एक और पी जुड़ गया है। यह पब्लिक - प्राइवेट पार्टिसिपेशन का उभरता समीकरण है। देश के हर कोने में लोकल स्तर की राजनीति में परिवर्तन है। पार्षद और विधायक बनकर कानून को संचालित करने - कराने में जमीन - जायदीद खरीदने और बेचने का धंधा करने वालों ( प्रोपर्टी डीलरों) की बढ़ती संख्या पर नजर डालने की जरूरत है। कार्पोरेट और माल कल्चर में लोकतंत्र की बदलती तस्वीर सामने आने लगती है। कई बार लोकतंत्र पूंजी का खेल लगने लगता है। समाज का, समाज के लिए और समाज के द्वारा का सिद्धांत कहीं छूट गया है। अब तो कार्पोरेट मैनेजर ही युवा लक्ष्य है। वह कार्पोरेट, जिसके हाथ में किसी देश की सत्ता पर सरकारों को कबिज कराने और हटाने की चाबी है। सुपर पावर अमेरिकी का भी तो यही राज है, जहां सिर्फ कानून - व्यवस्था संभालना ही सरकार का काम बच गया है। बाकी सबकुछ कार्पोरेट जगत के हाथ में है। भारतीय परिदृश्य में नए परिवर्तन भी कुछ ऐसे ही संदेश देने लगे हैं। इस सभी परिवर्तनों के बीच प्रतिभा के पेशागत पलायन से जुड़े प्रतिमानों पर चिंतन करने की जरूरत है। डाक्टर बनकर गरीबों के इलाज की सोचना तथा इंजीनियर बनकर देश की उर्जा समस्या का समाधान नई पीढ़ी की चुनौती नहीं है।

Wednesday, February 10, 2010

शहीदों के खानदान ही खत्म!

शहीदों के खानदान ही खत्म!

ढूंढे़ नहीं मिल रहे जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों के परिजन। शर्म! शर्म!! शर्म!!!

सतीश चंद्र श्रीवास्तव

देश को आजादी की प्रेरणा देने वाले जलियांवाला बाग के शहीदों के खानदान ही खत्म हो गए हैं। आजादी के 62 साल बाद इस दुर्गति पर न तो संसद में एक बार भी आवाज उठी है और न ही अब तक आर्डर! आर्डर!! आर्डर!!! वाला कोई वाकया ही सामने आया है। जाहिर है जिन लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जान गंवाई, उनके खानदान में ही कोई नामलेवा नहीं बचा। ऐसे में उन शहीदों की आवाज कौन उठाए? वर्तमान समय में इस मुद्दे को उठाने की प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े होते हैं। लोग पूछते हैं, गडे़ मुर्दे क्यों उखाड़ते हो? लेकिन मामला मौजूं हो गया है। केंद्र सरकार ने एक साल पहले शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी मान तो लिया था, परंतु अब तक उनकी आधिकारिक सूची तक तैयार नहीं हो सकी है। मारे गए हजारों लोगों में से सिर्फ 16 लोगों के वारिसों का पता लगाया जा सका है। घटना के 90 साल और आजादी के 62 साल बाद यह शहीदों के प्रति उदासीनता क्या कम शर्मनाक है! कहते हैं, जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती, उसका विनाश हो जाता है। विश्व के हर कोने में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसे में समझ लेने की जरूरत है ही कि देश के नेता भारत के किस भविष्य का निर्माण कर रहे हैं।

14 दिसंबर 2008 को केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग कांड, 1919 के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में शामिल करने का आधिकारिक आदेश जारी किया था। देश के सभी अखबारों और चैनलों पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और अंबिका सोनी की तस्वीरों से युक्त विज्ञापन प्रकाशित और प्रसारित किया गया। अब एक साल बाद सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगा पाना क्या कौम के खात्मे का गंभीर संकेत नहीं दे रहा? क्या पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति जैसी बातें अप्रासंगिक और दकियानूसी नहीं हो गई हैं? परंतु इस बात का जवाब भी तो सोचना पड़ेगा कि राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करके अमेरिका-इंग्लैंड ही नहीं, चीन और जापान भी कोई कदम क्यों नहीं नहीं उठाते? ऐसे में भारतीय व्यवस्था आखिर किनके हाथों में खेल रही है?

सवालों में इतिहासकार

इतिहास के पन्नों में सभी ने पढ़ा है कि 13 अप्रैल 1919 को 'वैशाखी वाले दिन' जनरल डॉयर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की थी। हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे। इतिहासकारों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि किसे भ्रम में डालने के लिए और किसकी चापलूसी करते हुए पुस्तकों में 'वैशाखी वाले दिन' का इस्तेमाल किया गया। हकीकत यह है कि अमृतसर में वैशाखी मेला की कोई परंपरा नहीं है। पंजाब में वैशाखी का मेला आनंदपुर साहिब में लगता है। जलियांवाला बाग में न पहले कभी मेला लगता था और न आज ही कोई परंपरागत आयोजन होता है। कड़वी सचाई यह भी है कि आज के अमृतसर में पांच प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि मजदूर और मानवाधिकारों के विरोधी रॉलेट एक्ट के खिलाफ 31 मार्च और 6 अप्रैल को पूर्ण बंदी तथा 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था। आंदोलन प्रभावित करने के लिए 10 अप्रैल 1919 को प्रमुख नेता डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सत्यपाल को गिरफ्तार किया गया तो युवा हिंसक हो उठे। अंग्रेजों पर हमला बोला। स्टेशन, बैंक, डाकघर को निशाना बनाया। देशभक्तों पर हुई फायरिंग में 35 शहीद हुए। 13 अप्रैल को इसी सिलसिले में शोकसभा थी, जिसमें 20 हजार से अधिक लोग मौजूद थे। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सेवा समिति के दल ने 1500 से अधिक शहीदों की सूची तैयार की थी। उक्त सूची अब गायब है।

अंग्रेजों के रिकार्ड और गजट के अनुसार 464 देशभक्त शहीद हुए थे। अमृतसर जिला प्रशासन और जलियांवाला बाग कमेटी ने 501 शहीदों की सूची तैयार की है। इनमें से सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगाया जा सका है। इनमें से 13 नाम जलियांवाला बाग शहीद परिवार समिति के अध्यक्ष भूषण बहल ने दिए हैं। सरकार सिर्फ तीन शहीद परिवारों को ही खोज सकी है। शहीदों की उपेक्षा की पोल खुलने के डर से पिछले एक साल से परिजनों को स्वतंत्रता सेनानी परिवार के रूप में स्वीकृति पत्र देने की प्रक्रिया तक शुरू नहीं की जा सकी है। हकीकत यह भी है कि जलियांवाला बाग में फायरिंग के बाद लगभग छह महीने तक गांवों के लोगों को भी अमृतसर आने-जाने नहीं दिया गया। सबूतों को खत्म करने का प्रयास किया गया। 13 अप्रैल की घटना को एक सप्ताह तक दबाए रखने की कोशिश हुई। जब देशवासियों को दर्दनाक कारनामों की जानकारी मिली तो पूरा देश जल उठा। कवियों ने जलियांवाला बाग को केंद्र में रखकर गीत लिखे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने सर की ब्रिटिश उपाधि लौटा दी। इस घटना के बाद ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। उन्हें अमृतसर पहुंचने के पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। दूसरी तरफ सत्ता से जुड़े लोगों ने मामले को रफा दफा करने की हर संभव कोशिश की। पीडि़तों को बिना देरी मुआवजा दिया गया, ताकि विरोध के स्वर कम हों। इसके साथ ही भ्रम फैलाने का दौर शुरू हो गया।

विभाजन का दर्द

सत्ता पर काबिज होने के लिए कुर्बानियों को कैसे कुर्बान किया जाता है, यह कोई जलियांवाला बाग की मिट्टी से पूछे। आजादी के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता प्रतीक के रूप में उभरे अमृतसरवासियों को देश विभाजन ने सांप्रदायिक हिंसा में झोंक दिया। 9 अप्रैल 1919 को जिस अमृतसर के लोगों ने डा. हफीज मुहम्मद बशीर के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकाला था, वहीं के लोगों ने एक दूसरे का खून किया। विभाजन के दौरान 10 लाख लोग मारे गए। अमृतसर का स्वरूप ही बदल गया। मुस्लिम बहुल अमृतसर में बड़ी संख्या में हिंदू और सिख आबादी लाहौर और पेशावर से पलायन कर आ बसी। इधर जिन लोगों के परिजनों ने बाद में वतन के लिए शहादत दी थी, वे जैसे तैसे जिंदा बचे तो, पराया वतन के हो गए। पाकिस्तानी बना दिए गए। ऐसे में कोई क्यों लेगा जलियांवाला बाग के शहीदों की सुध। उनका खानदान या तो सांप्रदायिक खून-खराबे में खत्म हो गया या पलायन कर गया। जो बच गए, वह खौफ खाते हैं कि गलती से उनके देशभक्त परिवार से संबंधित होने का राज न खुल जाए।

शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित किए जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। अब वह 60 वर्ष के हो चुके हैं। उनके साथी 90 वर्षीय सोहनलाल भारती का परिवार अमृतसर में फाकाकशी के बाद दिल्ली में दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। बाग कांड के समय सोहनलाल अपनी मां अमृतकौर के गर्भ में थे। इसी वीरांगना मां ने सुहाग लूटने वालों से मुआवजा लेने से इंकार कर दिया था। इसी तरह अमृतसर के चौक पासियां में 65 साल की उम्र में भी टेलीफोन बूथ चला कर गुजारा करने वाले नंदलाल अरोरा अपने शहीद दादा पर गर्व नहीं कर पाते। उन्हें पता है कि 1919 की घटना में अंग्रेजों का साथ देने वालों के पास आज गाड़ी-बंगले और उद्योग-धंधे हैं। वही लोग पैसे के बल पर अब नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। इन सभी घटनाक्रमों पर जलियांवाला बाग का कण - कण गवाही दे रहा है, पर कोई सुनने को तैयार नहीं। आजादी के 62 साल बाद भी वहां शहीदों की सूची तक नहीं लग सकी है।

आजादी के बाद बाग

जलियांवाला बाग को सुरक्षित रखने के नाम पर 1952 में संसद में ट्रस्ट बिल पास किया गया। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके अध्यक्ष बने। उस समय से ही सरकारी कब्जे में चल रहे बाग को अब तक राष्ट्रीय धरोहरों की सूची तक में शामिल नहीं किया जा सका है। संख्या का भ्रम बताकर शहीदों की सूची नहीं तैयार की जा रही। बुरी तरह घिरने केबाद 14 दिसंबर 2008 को भले ही सरकार ने बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर दिया, पर अब तक एक भी परिवार को स्वतंत्रता सेनानी परिवार का दर्जा नहीं मिल सका है। सवाल दो स्तर पर है। ऐसी कृतघ्नता क्यों? इतनी देरी क्यों? इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आजादी केबाद से ही जिस ट्रस्ट के अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री रहे हों, उसकी इस कदर उपेक्षा क्यों? प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह वर्ष 2007 से पदेन अध्यक्ष हैं, परंतु एक बार भी इस मसले पर मुंह नहीं खोल पाते तो संदेह और गहरा जाता है।

(प्रखर पत्रकार श्री सतीश मेरे मित्र हैं और पत्रकारिता के दौरान लगभग नौ साल उन्होंने अमृतसर में गुजारे हैं। जलियांवाला बाग के शहीदों को गति दिलाना उनका सपना है। देखें यह कब पूरे भारतवर्ष का सपना बनता है। यह सपना कब साकार होता है। -कौशल)
Posted by Kaushal at 8:19 PM
Reactions:
6 comments:

देवेन्द्र said...

क्या कर रही है सरकार? उफ!
December 10, 2009 11:19 PM
ranjan said...

वाह सतीश भाई वाह, एक सच्चे भारतीय का फर्ज निभा रहे हैं आप। मनमोहन सिंह के पदेन अधिकारी होने के वावजूद यदि शहीदों के परिजन नहीं खोजे जा रहे हैं तो यह देश के लिए शर्मनाक है। शर्मनाक।
December 10, 2009 11:23 PM
chandra said...

यह पूरे देश के लिए सवाल है। इसका जवाब पूरे देशवासियों को मिलकर ढूंढ़ना होगा। सतीश भाई को सलाम कि सवाल उठाने का पुनीत काम उन्होंने किया है। वरना तो लोग अपने दरबे से निकलना आजकल छोड़ चुके हैं। सरकार और मंत्रियों तक का यही हाल है।
December 10, 2009 11:27 PM
ब्रजेश said...

इतिहास को वर्तमान में आपने जिस दिल-गुर्दे के साथ पेश किया है, उस हिम्मत को दाद देता हूं। रपटें तो बहुत पढ़ीं, पर ऐसी रपट पहली बार पढ़ी है। सच आपने पत्रकारिता धर्म को इस रपट से परिभाषित भी किया है। सवाल उठा है तो जवाब भी मिलेगा। सरकार नहीं तो कोई और सही, मगर मेरा भरोसा है कि शहीदों को सम्मान मिलेगा, उनके परिजनों को सम्मान मिलेगा। देश में अभी लज्जत बची हुई है।
December 10, 2009 11:33 PM
Anonymous said...

आपका यह अभियान अच्‍छा है लेकिन आज कल का नेता सिर्फ अपने स्‍वार्थ के लिए राजनीति करते हैं उनको देश व समाज से को मतलब नहीं है

समाज सेवक
December 11, 2009 1:54 PM
रविकांत प्रसाद said...

इन्हें लाश की राजनीति में भी शर्म नहीं आती!
प्रसंग-एक : निठारी कांड का एक पात्र सुरेन्द्र कोली, जो छोटे-छोटे बच्चों को टुकड़ों में काटकर उसका गोश्त खाता था। फिलहाल जेल में हैं, कोली की चर्चा छिड़ते ही लोगों के चेहरे पर घृणा के भाव उभर आते हैं जबकि वह अपने जुर्म की सजा भुगत रहा है। कोली जैसे हत्यारे ने अपने जघन्य अपराध को माना।
प्रसंग-दो : दिल्ली में गए वर्ष हुए एक बम विस्फोट की जानकारी जब तत्कालीन गृह मंत्री को मिली तो उन्होंने पहले सूट बदला, पाउडर चपोड़े फिर देखने गए कि कितने लोग मारे गए हैं? गृह मंत्री ने मरे लोगों के शवों पर कत्थक करने से पहले खुद को सजा-संवार लिया था। इस घटना के कुछ ही माह बाद ये पद से हट गए, परंतु इन्हें कभी पछतावा नहीं हुआ।
प्रसंग-तीन : झारखंड राज्य बनने के पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे, इन्होंने एक भाषण में कहा था कि उनके शव पर ही राज्य का बंटवारा होगा। यानी जीते जी वे बंटवारे की बात को स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ दिनों बाद झारखंड स्वतंत्र राज्य बना। लालू प्रसाद अब भी राजनीति कर रहे हैं। इन्हें कोई पछतावा नहीं कि झारखंड बनने से बिहार कमजोर हो गया।
सतीश श्रीवास्तव जी आपके लेख जलियांवाला बाग के खानदान ही खत्म! मैंने पढ़ा, आपको बधाई कि आपने एक ऐसे विषय को छुआ जिसे लाशों पर राजनीति करने वाले इतिहास का मरा पात्र भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके लेख से मस्तिष्क में 'आइला' उठा, उसे शांत करने के लिए उक्त प्रसंगों का सहारा लेना पड़ा। जिस देश के नेता को जलियांवाला बाग के शहीद को शहीद मानने में परेशानी हो रही है, इनके लिए कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाए। इसपर पर गंभीरता से विचार करना होगा? हाल ही में मनसे नेताओं ने सपा विधायक अबू आजमी को हिन्दी में शपथ लेने के लिए प्रताडि़त किया था। मनसे नेताओं को शायद मां को मां कहने में भी शर्म आती है। ऐसे विचारधारा के नेता भला शहीद को शहीद आसानी से कैसे कहेंगे, कैसे मान लेंगे। जलियांवाला बाग की घटना तो भारतीय के मुंह पर अंग्रेजों का एक ऐसा तमाचा था जिससे भारतीय टूट जाए, झूक जाए। परंतु इसी घटना ने भारत में आजादी की ऐसी मशाल जलाई जिसमें अंग्रेज धू-धूकर जल गए। केन्द्र व राज्य सरकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों को तो कई सुविधाएं दीं, क्योंकि ये जिंदा हैं, वोट दे सकते हैं, इन्हें गद्दी पर बिठा सकते हैं। परंतु 1919 में घटी जलियांवाला बाग की घटना के शहीदों को अबतक शहीद का दर्जा न मिलना वास्तव में चिंतनीय है। इसमें मारे गए शहीदों की गिनती भी नेताओं को सही से याद नहीं है। जहां अंग्रेजी हुकू मत की पंजाब सरक ार की रिपोर्ट में बाग में 379 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई थी, वहीं अमृतसर सेवा सोसायटी ने उसी समय 530 शहीदों की सूची तैयार की थी। जबकि आजाद भारत सरकार का कोई अधिकारिक दस्तावेज अब तक जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों को शहीद ही नहीं मानता। शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब वह 60 के हो चुके हैं। इनके संघर्ष का ही नतीजा है कि सोलह लोगों के वारिसों का पता लग गया है।
December 13, 2009 3:24 AM

ठहरे पानी में हलचल

काश, ठहरे पानी में हलचल हो

... मेरे देश की संसद मौन है

एम. अखलाक

एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा सेंकता है, तीसरा न बेलता है न सेंकता है, सिर्फ खाता है। मैं पूछता हूं- तीसरा कौन है? मेरे देश की संसद मौन है। मैं इन चर्चित पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं। संभव है सतीश चंद्र श्रीवास्तव जी ने जो सवाल उठाए हैं, उनका जवाब सामने आ जाए। 62 साल में ही भारतीय लोकतंत्र की यह दुर्दशा होगी, यदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को इस बात का आभास होता तो शायद ही वे जंग-ए-आजादी के मैदान में कूदते! आजादी के बाद भारत का बंटवारा लोकतंत्र की दुर्दशा की शुरुआत थी। समय दर समय यह रूप बदल कर हमारे सामने आता गया, आता गया और हम खामोश रहे, संसद की तरह। हमने कभी आवाम बनकर संसद से पूछने की जुर्रत नहीं की कि वह 'तीसरा' कौन है? भाई सतीश जी ने जलियावाला बाग का जो 'दृश्य' शब्दों में दिखाने की कोशिश की है, वह शायद दुर्दशा का आखिरी एपीसोड ही है! क्योंकि जिस तेजी से हमने ग्लोबल दुनिया रूपी गुलामी में इंट्री मारी है, उससे तो मानना ही पड़ेगा कि जंग-ए-आजादी का मकसद अब खत्म हो चुका है। हम कह सकते हैं कि हमें सिर्फ 60-62 साल की ही आजादी मिली थी। देश में दूसरा दौर शुरू हो चुका है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी से भी पहले नरसिम्हाराव ने इसकी बुनियाद रख दी थी। शहीद और शहीदों की कहानियां अब सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन ब्रिटिश हुकूमत की 'कहानियां' सुनाते हैं, भूल जाते हैं। जहां तक सरकार की बात है तो हुजूर आपकी सरकार बची ही कहां है? भ्रम तोडि़ए, सरकार आपसे नहीं, अमेरिका से चल रही है, विश्व बैंक के पैसों से चल रही है। क्या बचा है आपका आपके हिन्दुस्तान में, जिसे गर्व से कह सकें कि अपना है। सब कुछ तो बदल गया, जो बचा है वह भी बदल रहा है, बदल जाएगा। सो अंत में यही कहूंगा- तख्त बदल दो, ताज बदल दो, यदि कूवत है तो गद्दारों का राज बदल दो। और यह संभव है आप जैसे विचारशील साथियों से। आपकी आवाज ठहरे पानी में हलचल पैदा करे, क्रांति की आवाज बने, इसमें मैं भागीदार बनूं, यह आकांक्षा है।

श्री एम. अखलाक युवा क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। पत्रकारीय जीवन का सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए वे कई सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हुए हैं। इनसे मिलिए www.reportaaz.blogspot.com पर।
Posted by Kaushal at 1:12 AM
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6 comments:

शरद कोकास said...

कवि धूमिल को नमन ।
December 12, 2009 5:47 AM
परमजीत बाली said...

हम लोग सिर्फ आशा कर सकते हैं....लेकिन कुछ कर नही सकते......आज पैसे के बल पर सब खरीदा बेचा जाता है......वोट हो या आदमी का जमीर।फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। ....
December 12, 2009 11:30 AM
शंकर फुलारा said...

ठहरे पानी में हलचल तो अब बाबा रामदेव ने मचा दी है. बस, कुछ को समझ आ गयी है, कुछ समझना नहीं चाहते, कुछ दूर रह कर तमाशा देखना चाहते हैं. वैसे आपके विचार और भावना बहुत मिलती है.
December 13, 2009 12:58 PM
Kaushal said...

जलियांवाला बाग के शहीदों को सम्मान दिलाने के लिए श्री अखलाक जी की टिप्पणी के साथ होने वाले श्री शरद कोकस जी, श्री परमजीत बाली जी और श्री शंकर फुलारा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद। निश्चित ही इस आवाज से शहीदों की आत्मा को शांति पहुंच रही होगी।
December 13, 2009 1:47 PM
ब्रजेश said...

मेरे देश की संसद मौन है, वाह, वाह। मुझे तो लगता है कि इस लेख के बाद मौन टूटेगा।
December 13, 2009 1:49 PM
sanjayupadhyay said...

Your opinion about the leader of our country is perfect. Theme of your story will work like inspirator of our socity.
December 14, 2009 8:35 AM

शहीदों के बहाने

जलियांवाला बाग के शहीदों के बहाने
जलियांवाला बाग के शहीदों की याद में, उन्हें और उनके परिजनों को सम्मान दिलाने की खातिर मेरे मित्रों सतीश चंद्र श्रीवास्तव ने, फिर एम. अखलाक ने, फिर रविकांत ने जो कुछ लिखा, कहा और जितना आक्रोश व्यक्त किया, वह सिर्फ उस मानवीय संवेदना को ही उभारते हैं, जहां से इंसानी कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता सक्रिय होती है। पर, राजकाज इससे इतर चीज है। क्या है राजकाज, इसे जानने के लिए थोड़ा गांधी को पढ़ना होगा, थोड़ा लोहिया को और थोड़ा जयप्रकाश को भी। इसके बाद आजादी प्राप्ति के बाद से राजकाज का पल में तोला, पल में मासा वाले मिजाज को भी गहराई से समझना होगा। इतने के बाद यदि समझदारी बची रहे तो कीजिए जलियांवाला बाग के शहीदों और उनके परिजनों को खोजने का काम।

लोहिया जीवन भर चिल्लाते रहे, समाजवाद की बात करते रहे, असली हिन्दुस्तान का राग अलापते रहे, पर न महात्मा गांधी ने उनकी सुनी, न जवाहर लाल ने। इंदिरा गांधी के काल में तो लोहिया ने भी मान लिया था कि अव उनके अवसान का समय आ गया है और वे भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जयप्रकाश का भी कमोबेश यही हाल रहा। चमकते सूरज की तरह प्रतिभा रखने वाले और पूज्य बापू की तरह गांव और गरीबों के पक्षधऱ इस दिव्य ज्योति के जीवन में ही सर्वोदय का सूरज डूब गया था। देश भर में आज भी इसका दर्द महसूस किया जाता है। रुंधे गलों के साथ यह आम सुना जाता है कि जेपी के चेलों ने भी जेपी की राह पर चलना गंवारा नहीं किया। हां, एक नीतीश बचे हैं, जो जेपी आंदोलनकारियों को पेंशन दे रहे हैं और इस पर कई टीका टिप्पणियां चल रही हैं।

आजादी प्राप्ति के अभी महज ६२ वर्ष ही तो हुए हैं और गैट से गुजरते हम अमेरिका की तर्ज पर छब्बीस बाई ग्यारह मना रहे हैं। तालिबान और अलकायदा देश में घुस कर फुंफकार रहे हैं। चीन अरुणाचल में बाजा बजा रहा है, नेपाल की सरकार विरोध में खड़ी है, जबकि बांग्लादेश हमारे सैनिकों की लाशों को हमारे पास भेज रहा है। देश के अंदर देखते-देखते प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक उड़ा दिए जा रहे हैं। कब किस मुख्यमंत्री का हेलिकाप्टर गायब हो जाए और बाद में उसकी लाश बरामद हो, कहा नहीं जा सकता। कभी छह घंटे काम को सर्वाधिक मान कर शान से घर जाकर हसीन सपने देखने वाली जमात २४ में १६-१६ घंटे काम कर रही है और वह इस दुर्दशा को किसी के सामने कह तक नहीं पा रही है। आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।

ऐसे में भाइयों ने जलियांवाला बाग का मामला उठा दिया है, वहां शहीद हुए जांबाजों का मामला उठा दिया है, उन शहीदों के परिजनों की खोज का मामला उठा दिया है। मैं यह नहीं कहता कि गलत किया है। सही किया है। शुरू में ही कह दिया कि ये मानवीय कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता के सक्रिय होने का शुरूआती लक्षण है। पर, जहां जिंदा तस्वीरें अपने ही देश में (कभी मुंबई में तो कभी असम में तो कभी पंजाब में) गद्दार और बाहरी का तमगा हासिल कर जिल्लत झेल रही हो, जिन्हें शहीद बना देने के लिए पूरी की पूरी कौम आमादा हो और उन्हें कोई रोक नहीं पा रहा हो, वैसी हालत में जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए मैं किस दिल से उम्मीद पालूं, मुझे समझ में नहीं आता। सतीश भाई की आवाज कौन सुनेगा, यह समझ में नहीं आता। यह समझ में नहीं आता कि पार्टियों दर पार्टियों में बंटे देश, जातियों दर जातियों में बंटे मुल्क, पैसे दर पैसे में फंसे वतन की तकदीर आखिर जिन लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है, उन हाथों से जलियांवाला बाग की तकदीर आखिर फिर से कैसे लिखी जा सकेगी? आखिर कैसे??

कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।
Posted by Kaushal at 12:02 AM
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7 comments:

देवेन्द्र said...

आपके विचार से मैं सहमत हूं। देश की वर्तमान हालत चिंताजनक है। महंगाई बेलगाम हो चुकी है, अपराध औऱ आतंकवाद चरम पर है। क्षेत्रीयतावाद का बोलवाला है। ऐसे में शहीदों की ओर किसका ध्यान जाता है?
December 19, 2009 7:14 PM
ब्रजेश said...

आलेख बड़ी चिंता की ओर ले जा रहा है। इन चिंताओं का समाधान किए बिना देश बचने वाला भी नहीं। देखें हमारे सिरमौरों को कुछ ख्याल आता भी है या नहीं?
December 19, 2009 7:18 PM
chandra said...

कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।

वाह क्या बात कही।
December 19, 2009 7:20 PM
संजीव तिवारी .. Sanjeeva Tiwari said...

सत्‍य कह रहे हैं आप, जिन लोगों को यह आलेख पढना चाहिए वे तो खर्राटे ले रहे हैं.
धन्‍यवाद धारदार विचार के लिए.
December 19, 2009 8:58 PM
एम अखलाक said...

हां, जेपी की राह पर चलना इसलिए जरूरी नहीं है कि ये भटके हुए समाजवादी थे। नीतीश का आपने इकलौता चेला घोषित करने की कोशिश की है। लाठी तो लालू यादव खाए थे, पीठ पर। लेकिन मैं इन दोनों को समाजद्रोही मानता हूं। दोनों की कार्यशैली में कोई फर्क नहीं। एक बड़बोला है तो दूसरा घुईंसमुंह।
बढ़िया बीज से ही अंकुरण की उम्‍मीद किसानों को होती है। जेपी के रास्‍ते दुरुस्‍त होते तो ऐसे चेले पैदा नहीं हुए होते। इसलिए जेपी के लोगों की वकालत बंद कीजिए। अब तो जेपी आंदोलनकारी ही जेपी के इन चेलों को खारिज कर रहे हैं। आइए मिलकर सोचें नया रास्‍ता क्‍या हो सकता है।
December 20, 2009 1:29 PM
Devendra said...

आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।
--बहुत खूब.
December 20, 2009 6:01 PM
mitthu said...

आपके ब्लॉग से कुछ दिन दूर रहने के लिए खेद है

घटाटोप की स्थिति है इस वक़्त । विचारधारा के स्तर पर भी और राजनितिक परिदृश्य के लिहाज से भी। आपकी चिंता यह अहसास करती है कि विचारों का द्वंद्व जारी है। एक समाधान जरूर निकल आएगा...
भवेश
December 20, 2009 6:22 PM

शहीदों के बहाने

जलियांवाला बाग के शहीदों के बहाने
जलियांवाला बाग के शहीदों की याद में, उन्हें और उनके परिजनों को सम्मान दिलाने की खातिर मेरे मित्रों सतीश चंद्र श्रीवास्तव ने, फिर एम. अखलाक ने, फिर रविकांत ने जो कुछ लिखा, कहा और जितना आक्रोश व्यक्त किया, वह सिर्फ उस मानवीय संवेदना को ही उभारते हैं, जहां से इंसानी कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता सक्रिय होती है। पर, राजकाज इससे इतर चीज है। क्या है राजकाज, इसे जानने के लिए थोड़ा गांधी को पढ़ना होगा, थोड़ा लोहिया को और थोड़ा जयप्रकाश को भी। इसके बाद आजादी प्राप्ति के बाद से राजकाज का पल में तोला, पल में मासा वाले मिजाज को भी गहराई से समझना होगा। इतने के बाद यदि समझदारी बची रहे तो कीजिए जलियांवाला बाग के शहीदों और उनके परिजनों को खोजने का काम।

लोहिया जीवन भर चिल्लाते रहे, समाजवाद की बात करते रहे, असली हिन्दुस्तान का राग अलापते रहे, पर न महात्मा गांधी ने उनकी सुनी, न जवाहर लाल ने। इंदिरा गांधी के काल में तो लोहिया ने भी मान लिया था कि अव उनके अवसान का समय आ गया है और वे भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जयप्रकाश का भी कमोबेश यही हाल रहा। चमकते सूरज की तरह प्रतिभा रखने वाले और पूज्य बापू की तरह गांव और गरीबों के पक्षधऱ इस दिव्य ज्योति के जीवन में ही सर्वोदय का सूरज डूब गया था। देश भर में आज भी इसका दर्द महसूस किया जाता है। रुंधे गलों के साथ यह आम सुना जाता है कि जेपी के चेलों ने भी जेपी की राह पर चलना गंवारा नहीं किया। हां, एक नीतीश बचे हैं, जो जेपी आंदोलनकारियों को पेंशन दे रहे हैं और इस पर कई टीका टिप्पणियां चल रही हैं।

आजादी प्राप्ति के अभी महज ६२ वर्ष ही तो हुए हैं और गैट से गुजरते हम अमेरिका की तर्ज पर छब्बीस बाई ग्यारह मना रहे हैं। तालिबान और अलकायदा देश में घुस कर फुंफकार रहे हैं। चीन अरुणाचल में बाजा बजा रहा है, नेपाल की सरकार विरोध में खड़ी है, जबकि बांग्लादेश हमारे सैनिकों की लाशों को हमारे पास भेज रहा है। देश के अंदर देखते-देखते प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक उड़ा दिए जा रहे हैं। कब किस मुख्यमंत्री का हेलिकाप्टर गायब हो जाए और बाद में उसकी लाश बरामद हो, कहा नहीं जा सकता। कभी छह घंटे काम को सर्वाधिक मान कर शान से घर जाकर हसीन सपने देखने वाली जमात २४ में १६-१६ घंटे काम कर रही है और वह इस दुर्दशा को किसी के सामने कह तक नहीं पा रही है। आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।

ऐसे में भाइयों ने जलियांवाला बाग का मामला उठा दिया है, वहां शहीद हुए जांबाजों का मामला उठा दिया है, उन शहीदों के परिजनों की खोज का मामला उठा दिया है। मैं यह नहीं कहता कि गलत किया है। सही किया है। शुरू में ही कह दिया कि ये मानवीय कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता के सक्रिय होने का शुरूआती लक्षण है। पर, जहां जिंदा तस्वीरें अपने ही देश में (कभी मुंबई में तो कभी असम में तो कभी पंजाब में) गद्दार और बाहरी का तमगा हासिल कर जिल्लत झेल रही हो, जिन्हें शहीद बना देने के लिए पूरी की पूरी कौम आमादा हो और उन्हें कोई रोक नहीं पा रहा हो, वैसी हालत में जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए मैं किस दिल से उम्मीद पालूं, मुझे समझ में नहीं आता। सतीश भाई की आवाज कौन सुनेगा, यह समझ में नहीं आता। यह समझ में नहीं आता कि पार्टियों दर पार्टियों में बंटे देश, जातियों दर जातियों में बंटे मुल्क, पैसे दर पैसे में फंसे वतन की तकदीर आखिर जिन लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है, उन हाथों से जलियांवाला बाग की तकदीर आखिर फिर से कैसे लिखी जा सकेगी? आखिर कैसे??

कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।
Posted by Kaushal at 12:02 AM
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देवेन्द्र said...

आपके विचार से मैं सहमत हूं। देश की वर्तमान हालत चिंताजनक है। महंगाई बेलगाम हो चुकी है, अपराध औऱ आतंकवाद चरम पर है। क्षेत्रीयतावाद का बोलवाला है। ऐसे में शहीदों की ओर किसका ध्यान जाता है?
December 19, 2009 7:14 PM
ब्रजेश said...

आलेख बड़ी चिंता की ओर ले जा रहा है। इन चिंताओं का समाधान किए बिना देश बचने वाला भी नहीं। देखें हमारे सिरमौरों को कुछ ख्याल आता भी है या नहीं?
December 19, 2009 7:18 PM
chandra said...

कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।

वाह क्या बात कही।
December 19, 2009 7:20 PM
संजीव तिवारी .. Sanjeeva Tiwari said...

सत्‍य कह रहे हैं आप, जिन लोगों को यह आलेख पढना चाहिए वे तो खर्राटे ले रहे हैं.
धन्‍यवाद धारदार विचार के लिए.
December 19, 2009 8:58 PM
एम अखलाक said...

हां, जेपी की राह पर चलना इसलिए जरूरी नहीं है कि ये भटके हुए समाजवादी थे। नीतीश का आपने इकलौता चेला घोषित करने की कोशिश की है। लाठी तो लालू यादव खाए थे, पीठ पर। लेकिन मैं इन दोनों को समाजद्रोही मानता हूं। दोनों की कार्यशैली में कोई फर्क नहीं। एक बड़बोला है तो दूसरा घुईंसमुंह।
बढ़िया बीज से ही अंकुरण की उम्‍मीद किसानों को होती है। जेपी के रास्‍ते दुरुस्‍त होते तो ऐसे चेले पैदा नहीं हुए होते। इसलिए जेपी के लोगों की वकालत बंद कीजिए। अब तो जेपी आंदोलनकारी ही जेपी के इन चेलों को खारिज कर रहे हैं। आइए मिलकर सोचें नया रास्‍ता क्‍या हो सकता है।
December 20, 2009 1:29 PM
Devendra said...

आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।
--बहुत खूब.
December 20, 2009 6:01 PM
mitthu said...

आपके ब्लॉग से कुछ दिन दूर रहने के लिए खेद है

घटाटोप की स्थिति है इस वक़्त । विचारधारा के स्तर पर भी और राजनितिक परिदृश्य के लिहाज से भी। आपकी चिंता यह अहसास करती है कि विचारों का द्वंद्व जारी है। एक समाधान जरूर निकल आएगा...
भवेश
December 20, 2009 6:22 PM

लाश की राजनीति

Sunday, December 13, 2009
इन्हें लाश की राजनीति में भी शर्म नहीं आती!

किसी अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कोई फर्क नहीं???

रविकांत प्रसाद

प्रसंग-एक : निठारी कांड का एक पात्र सुरेन्द्र कोली, जो छोटे-छोटे बच्चों को टुकड़ों में काटकर उसका गोश्त खाता था। फिलहाल जेल में हैं। कोली की चर्चा छिड़ते ही लोगों के चेहरे पर घृणा के भाव उभर आते हैं, जबकि वह अपने जुर्म की सजा भुगत रहा है। कोली जैसे हत्यारे ने अपने जघन्य अपराध को माना।

प्रसंग-दो : दिल्ली में गए वर्ष हुए एक बम विस्फोट की जानकारी जब तत्कालीन गृह मंत्री को मिली तो उन्होंने पहले सूट बदला, पाउडर चपोड़े, फिर देखने गए कि कितने लोग मारे गए हैं? गृह मंत्री ने मरे लोगों के शवों पर कथक करने से पहले खुद को सजा-संवार लिया था। इस घटना के कुछ ही माह बाद ये पद से हट गए, परंतु इन्हें कभी पछतावा नहीं हुआ।

प्रसंग-तीन : झारखंड राज्य बनने के पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे। इन्होंने एक भाषण में कहा था कि उनके शव पर ही राज्य का बंटवारा होगा। यानी जीते जी वे बंटवारे की बात को स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ दिनों बाद झारखंड स्वतंत्र राज्य बना। लालू प्रसाद अब भी राजनीति कर रहे हैं। इन्हें कोई पछतावा नहीं कि झारखंड बनने से बिहार कमजोर हो गया।

सतीश श्रीवास्तव जी, आपके लेख जलियांवाला बाग के खानदान ही खत्म! मैंने पढ़ा। आपको बधाई कि आपने एक ऐसे विषय को छुआ, जिसे लाशों पर राजनीति करने वाले इतिहास का मरा पात्र भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके लेख से मस्तिष्क में 'आइला' उठा, उसे शांत करने के लिए उक्त प्रसंगों का सहारा लेना पड़ा। जिस देश के नेता को जलियांवाला बाग के शहीद को शहीद मानने में परेशानी हो रही है, इनके लिए कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाए। इसपर पर गंभीरता से विचार करना होगा?

हाल ही में मनसे नेताओं ने सपा विधायक अबू आजमी को हिन्दी में शपथ लेने के लिए प्रताडि़त किया था। मनसे नेताओं को शायद मां को मां कहने में भी शर्म आती है। ऐसे विचारधारा के नेता भला शहीद को शहीद आसानी से कैसे कहेंगे, कैसे मान लेंगे।

जलियांवाला बाग की घटना तो भारतीय के मुंह पर अंग्रेजों का एक ऐसा तमाचा था, जिससे भारतीय टूट जाए, झूक जाए। परंतु इसी घटना ने भारत में आजादी की ऐसी मशाल जलाई, जिसमें अंग्रेज धू-धूकर जल गए। केन्द्र व राज्य सरकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों को तो कई सुविधाएं दीं, क्योंकि ये जिंदा हैं, वोट दे सकते हैं, इन्हें गद्दी पर बिठा सकते हैं। परंतु 1919 में घटी जलियांवाला बाग की घटना के शहीदों को अबतक शहीद का दर्जा न मिलना वास्तव में चिंतनीय है। इसमें मारे गए शहीदों की गिनती भी नेताओं को सही से याद नहीं है।

जहां अंग्रेजी हुकूमत की पंजाब सरकार की रिपोर्ट में बाग में 379 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई थी, वहीं अमृतसर सेवा सोसायटी ने उसी समय 530 शहीदों की सूची तैयार की थी। जबकि, आजाद भारत सरकार का कोई आधिकारिक दस्तावेज अब तक जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों को शहीद ही नहीं मानता। यह हैरत भरा है। शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब वह 60 के हो चुके हैं। इनके संघर्ष का ही नतीजा है कि सोलह लोगों के वारिसों का पता लग गया है।

सरकार में थोड़ी सी भी चेतना बची हो, थोड़ा सा भी देशप्रेम बचा हो तो उसका पहला काम जलियांवाला बाग के शहीदों और शहीदों के परिवारों को सम्मान दिलाना ही होना चाहिए। पर, ऐसा हो पाएगा, कहना मुश्किल है। देखना यह है कि लाश की राजनीति करने वाले गली में किसी मुठभेड़ में मार गिराए गए अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कब फर्क करते हैं?

(प्रखर पत्रकार श्री रविकांत प्रसाद से आप www.journalism-ravikant.blogspot.com पर मिल सकते हैं।- कौशल)
Posted by Kaushal at 1:13 PM
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4 comments:

परमजीत बाली said...

अभी कोई उम्मीद नही है ....
December 13, 2009 2:15 PM
स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़ said...

लाश तो लाश है जी, ये राजनीती है ही ...ड़वों का खेल !!!

सलीम खान
December 13, 2009 4:04 PM
AlbelaKhatri.com said...

gande aur ghinaavne khel ka ek lamaabaa silsila chalaa a raha hai...

band toh hoga

magar kab hoga ?

ye wakt hi bataayega......

__bahut hi saarthak post

__badhaai !
December 13, 2009 7:06 PM
sanjayupadhyay said...

what a mind you have. you are the reasearcher. yor new step is fine. This can give great result in future.
December 13, 2009 9:53 PM
जलियांवाला बाग के शहीदों के बहाने
जलियांवाला बाग के शहीदों की याद में, उन्हें और उनके परिजनों को सम्मान दिलाने की खातिर मेरे मित्रों सतीश चंद्र श्रीवास्तव ने, फिर एम. अखलाक ने, फिर रविकांत ने जो कुछ लिखा, कहा और जितना आक्रोश व्यक्त किया, वह सिर्फ उस मानवीय संवेदना को ही उभारते हैं, जहां से इंसानी कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता सक्रिय होती है। पर, राजकाज इससे इतर चीज है। क्या है राजकाज, इसे जानने के लिए थोड़ा गांधी को पढ़ना होगा, थोड़ा लोहिया को और थोड़ा जयप्रकाश को भी। इसके बाद आजादी प्राप्ति के बाद से राजकाज का पल में तोला, पल में मासा वाले मिजाज को भी गहराई से समझना होगा। इतने के बाद यदि समझदारी बची रहे तो कीजिए जलियांवाला बाग के शहीदों और उनके परिजनों को खोजने का काम।

लोहिया जीवन भर चिल्लाते रहे, समाजवाद की बात करते रहे, असली हिन्दुस्तान का राग अलापते रहे, पर न महात्मा गांधी ने उनकी सुनी, न जवाहर लाल ने। इंदिरा गांधी के काल में तो लोहिया ने भी मान लिया था कि अव उनके अवसान का समय आ गया है और वे भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जयप्रकाश का भी कमोबेश यही हाल रहा। चमकते सूरज की तरह प्रतिभा रखने वाले और पूज्य बापू की तरह गांव और गरीबों के पक्षधऱ इस दिव्य ज्योति के जीवन में ही सर्वोदय का सूरज डूब गया था। देश भर में आज भी इसका दर्द महसूस किया जाता है। रुंधे गलों के साथ यह आम सुना जाता है कि जेपी के चेलों ने भी जेपी की राह पर चलना गंवारा नहीं किया। हां, एक नीतीश बचे हैं, जो जेपी आंदोलनकारियों को पेंशन दे रहे हैं और इस पर कई टीका टिप्पणियां चल रही हैं।

आजादी प्राप्ति के अभी महज ६२ वर्ष ही तो हुए हैं और गैट से गुजरते हम अमेरिका की तर्ज पर छब्बीस बाई ग्यारह मना रहे हैं। तालिबान और अलकायदा देश में घुस कर फुंफकार रहे हैं। चीन अरुणाचल में बाजा बजा रहा है, नेपाल की सरकार विरोध में खड़ी है, जबकि बांग्लादेश हमारे सैनिकों की लाशों को हमारे पास भेज रहा है। देश के अंदर देखते-देखते प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक उड़ा दिए जा रहे हैं। कब किस मुख्यमंत्री का हेलिकाप्टर गायब हो जाए और बाद में उसकी लाश बरामद हो, कहा नहीं जा सकता। कभी छह घंटे काम को सर्वाधिक मान कर शान से घर जाकर हसीन सपने देखने वाली जमात २४ में १६-१६ घंटे काम कर रही है और वह इस दुर्दशा को किसी के सामने कह तक नहीं पा रही है। आधुनिकता के साथ अपराधों का कहरो सितम चल रहा है और जिंदा तस्वीरें दिन-रात स्याह हो रही हैं। और हैरत है कि उन्हें देखने वाला सच में कहीं कोई नहीं दिखता।

ऐसे में भाइयों ने जलियांवाला बाग का मामला उठा दिया है, वहां शहीद हुए जांबाजों का मामला उठा दिया है, उन शहीदों के परिजनों की खोज का मामला उठा दिया है। मैं यह नहीं कहता कि गलत किया है। सही किया है। शुरू में ही कह दिया कि ये मानवीय कर्म व क्रिया की सचाई व सहजता के सक्रिय होने का शुरूआती लक्षण है। पर, जहां जिंदा तस्वीरें अपने ही देश में (कभी मुंबई में तो कभी असम में तो कभी पंजाब में) गद्दार और बाहरी का तमगा हासिल कर जिल्लत झेल रही हो, जिन्हें शहीद बना देने के लिए पूरी की पूरी कौम आमादा हो और उन्हें कोई रोक नहीं पा रहा हो, वैसी हालत में जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए मैं किस दिल से उम्मीद पालूं, मुझे समझ में नहीं आता। सतीश भाई की आवाज कौन सुनेगा, यह समझ में नहीं आता। यह समझ में नहीं आता कि पार्टियों दर पार्टियों में बंटे देश, जातियों दर जातियों में बंटे मुल्क, पैसे दर पैसे में फंसे वतन की तकदीर आखिर जिन लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है, उन हाथों से जलियांवाला बाग की तकदीर आखिर फिर से कैसे लिखी जा सकेगी? आखिर कैसे??

कहीं पढ़ा था - जीना हो तो मौत को गले लगाना पड़ेगा। मैं मानता हूं - जिन्होंने मौत को गले लगा लिया, वे जीवित हैं, जिंदा है, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। कोई नहीं।
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Sunday, December 13, 2009
इन्हें लाश की राजनीति में भी शर्म नहीं आती!

किसी अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कोई फर्क नहीं???

रविकांत प्रसाद

प्रसंग-एक : निठारी कांड का एक पात्र सुरेन्द्र कोली, जो छोटे-छोटे बच्चों को टुकड़ों में काटकर उसका गोश्त खाता था। फिलहाल जेल में हैं। कोली की चर्चा छिड़ते ही लोगों के चेहरे पर घृणा के भाव उभर आते हैं, जबकि वह अपने जुर्म की सजा भुगत रहा है। कोली जैसे हत्यारे ने अपने जघन्य अपराध को माना।

प्रसंग-दो : दिल्ली में गए वर्ष हुए एक बम विस्फोट की जानकारी जब तत्कालीन गृह मंत्री को मिली तो उन्होंने पहले सूट बदला, पाउडर चपोड़े, फिर देखने गए कि कितने लोग मारे गए हैं? गृह मंत्री ने मरे लोगों के शवों पर कथक करने से पहले खुद को सजा-संवार लिया था। इस घटना के कुछ ही माह बाद ये पद से हट गए, परंतु इन्हें कभी पछतावा नहीं हुआ।

प्रसंग-तीन : झारखंड राज्य बनने के पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे। इन्होंने एक भाषण में कहा था कि उनके शव पर ही राज्य का बंटवारा होगा। यानी जीते जी वे बंटवारे की बात को स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ दिनों बाद झारखंड स्वतंत्र राज्य बना। लालू प्रसाद अब भी राजनीति कर रहे हैं। इन्हें कोई पछतावा नहीं कि झारखंड बनने से बिहार कमजोर हो गया।

सतीश श्रीवास्तव जी, आपके लेख जलियांवाला बाग के खानदान ही खत्म! मैंने पढ़ा। आपको बधाई कि आपने एक ऐसे विषय को छुआ, जिसे लाशों पर राजनीति करने वाले इतिहास का मरा पात्र भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके लेख से मस्तिष्क में 'आइला' उठा, उसे शांत करने के लिए उक्त प्रसंगों का सहारा लेना पड़ा। जिस देश के नेता को जलियांवाला बाग के शहीद को शहीद मानने में परेशानी हो रही है, इनके लिए कौन-सा शब्द इस्तेमाल किया जाए। इसपर पर गंभीरता से विचार करना होगा?

हाल ही में मनसे नेताओं ने सपा विधायक अबू आजमी को हिन्दी में शपथ लेने के लिए प्रताडि़त किया था। मनसे नेताओं को शायद मां को मां कहने में भी शर्म आती है। ऐसे विचारधारा के नेता भला शहीद को शहीद आसानी से कैसे कहेंगे, कैसे मान लेंगे।

जलियांवाला बाग की घटना तो भारतीय के मुंह पर अंग्रेजों का एक ऐसा तमाचा था, जिससे भारतीय टूट जाए, झूक जाए। परंतु इसी घटना ने भारत में आजादी की ऐसी मशाल जलाई, जिसमें अंग्रेज धू-धूकर जल गए। केन्द्र व राज्य सरकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों को तो कई सुविधाएं दीं, क्योंकि ये जिंदा हैं, वोट दे सकते हैं, इन्हें गद्दी पर बिठा सकते हैं। परंतु 1919 में घटी जलियांवाला बाग की घटना के शहीदों को अबतक शहीद का दर्जा न मिलना वास्तव में चिंतनीय है। इसमें मारे गए शहीदों की गिनती भी नेताओं को सही से याद नहीं है।

जहां अंग्रेजी हुकूमत की पंजाब सरकार की रिपोर्ट में बाग में 379 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई थी, वहीं अमृतसर सेवा सोसायटी ने उसी समय 530 शहीदों की सूची तैयार की थी। जबकि, आजाद भारत सरकार का कोई आधिकारिक दस्तावेज अब तक जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों को शहीद ही नहीं मानता। यह हैरत भरा है। शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब वह 60 के हो चुके हैं। इनके संघर्ष का ही नतीजा है कि सोलह लोगों के वारिसों का पता लग गया है।

सरकार में थोड़ी सी भी चेतना बची हो, थोड़ा सा भी देशप्रेम बचा हो तो उसका पहला काम जलियांवाला बाग के शहीदों और शहीदों के परिवारों को सम्मान दिलाना ही होना चाहिए। पर, ऐसा हो पाएगा, कहना मुश्किल है। देखना यह है कि लाश की राजनीति करने वाले गली में किसी मुठभेड़ में मार गिराए गए अपराधी की लाश और देश को बचाने के लिए मौत को गले लगा लेने वाले शहीदों की लाश में कब फर्क करते हैं?

(प्रखर पत्रकार श्री रविकांत प्रसाद से आप www.journalism-ravikant.blogspot.com पर मिल सकते हैं।- कौशल)
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Saturday, December 12, 2009
काश, ठहरे पानी में हलचल हो

... मेरे देश की संसद मौन है

एम. अखलाक

एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा सेंकता है, तीसरा न बेलता है न सेंकता है, सिर्फ खाता है। मैं पूछता हूं- तीसरा कौन है? मेरे देश की संसद मौन है। मैं इन चर्चित पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूं। संभव है सतीश चंद्र श्रीवास्तव जी ने जो सवाल उठाए हैं, उनका जवाब सामने आ जाए। 62 साल में ही भारतीय लोकतंत्र की यह दुर्दशा होगी, यदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को इस बात का आभास होता तो शायद ही वे जंग-ए-आजादी के मैदान में कूदते! आजादी के बाद भारत का बंटवारा लोकतंत्र की दुर्दशा की शुरुआत थी। समय दर समय यह रूप बदल कर हमारे सामने आता गया, आता गया और हम खामोश रहे, संसद की तरह। हमने कभी आवाम बनकर संसद से पूछने की जुर्रत नहीं की कि वह 'तीसरा' कौन है? भाई सतीश जी ने जलियावाला बाग का जो 'दृश्य' शब्दों में दिखाने की कोशिश की है, वह शायद दुर्दशा का आखिरी एपीसोड ही है! क्योंकि जिस तेजी से हमने ग्लोबल दुनिया रूपी गुलामी में इंट्री मारी है, उससे तो मानना ही पड़ेगा कि जंग-ए-आजादी का मकसद अब खत्म हो चुका है। हम कह सकते हैं कि हमें सिर्फ 60-62 साल की ही आजादी मिली थी। देश में दूसरा दौर शुरू हो चुका है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी से भी पहले नरसिम्हाराव ने इसकी बुनियाद रख दी थी। शहीद और शहीदों की कहानियां अब सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन ब्रिटिश हुकूमत की 'कहानियां' सुनाते हैं, भूल जाते हैं। जहां तक सरकार की बात है तो हुजूर आपकी सरकार बची ही कहां है? भ्रम तोडि़ए, सरकार आपसे नहीं, अमेरिका से चल रही है, विश्व बैंक के पैसों से चल रही है। क्या बचा है आपका आपके हिन्दुस्तान में, जिसे गर्व से कह सकें कि अपना है। सब कुछ तो बदल गया, जो बचा है वह भी बदल रहा है, बदल जाएगा। सो अंत में यही कहूंगा- तख्त बदल दो, ताज बदल दो, यदि कूवत है तो गद्दारों का राज बदल दो। और यह संभव है आप जैसे विचारशील साथियों से। आपकी आवाज ठहरे पानी में हलचल पैदा करे, क्रांति की आवाज बने, इसमें मैं भागीदार बनूं, यह आकांक्षा है।

श्री एम. अखलाक युवा क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। पत्रकारीय जीवन का सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए वे कई सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हुए हैं। इनसे मिलिए www.reportaaz.blogspot.com पर।
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Thursday, December 10, 2009
शहीदों के खानदान ही खत्म!

ढूंढे़ नहीं मिल रहे जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों के परिजन। शर्म! शर्म!! शर्म!!!

सतीश चंद्र श्रीवास्तव

देश को आजादी की प्रेरणा देने वाले जलियांवाला बाग के शहीदों के खानदान ही खत्म हो गए हैं। आजादी के 62 साल बाद इस दुर्गति पर न तो संसद में एक बार भी आवाज उठी है और न ही अब तक आर्डर! आर्डर!! आर्डर!!! वाला कोई वाकया ही सामने आया है। जाहिर है जिन लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जान गंवाई, उनके खानदान में ही कोई नामलेवा नहीं बचा। ऐसे में उन शहीदों की आवाज कौन उठाए? वर्तमान समय में इस मुद्दे को उठाने की प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े होते हैं। लोग पूछते हैं, गडे़ मुर्दे क्यों उखाड़ते हो? लेकिन मामला मौजूं हो गया है। केंद्र सरकार ने एक साल पहले शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी मान तो लिया था, परंतु अब तक उनकी आधिकारिक सूची तक तैयार नहीं हो सकी है। मारे गए हजारों लोगों में से सिर्फ 16 लोगों के वारिसों का पता लगाया जा सका है। घटना के 90 साल और आजादी के 62 साल बाद यह शहीदों के प्रति उदासीनता क्या कम शर्मनाक है! कहते हैं, जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती, उसका विनाश हो जाता है। विश्व के हर कोने में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसे में समझ लेने की जरूरत है ही कि देश के नेता भारत के किस भविष्य का निर्माण कर रहे हैं।

14 दिसंबर 2008 को केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग कांड, 1919 के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में शामिल करने का आधिकारिक आदेश जारी किया था। देश के सभी अखबारों और चैनलों पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और अंबिका सोनी की तस्वीरों से युक्त विज्ञापन प्रकाशित और प्रसारित किया गया। अब एक साल बाद सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगा पाना क्या कौम के खात्मे का गंभीर संकेत नहीं दे रहा? क्या पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति जैसी बातें अप्रासंगिक और दकियानूसी नहीं हो गई हैं? परंतु इस बात का जवाब भी तो सोचना पड़ेगा कि राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करके अमेरिका-इंग्लैंड ही नहीं, चीन और जापान भी कोई कदम क्यों नहीं नहीं उठाते? ऐसे में भारतीय व्यवस्था आखिर किनके हाथों में खेल रही है?

सवालों में इतिहासकार

इतिहास के पन्नों में सभी ने पढ़ा है कि 13 अप्रैल 1919 को 'वैशाखी वाले दिन' जनरल डॉयर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की थी। हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे। इतिहासकारों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि किसे भ्रम में डालने के लिए और किसकी चापलूसी करते हुए पुस्तकों में 'वैशाखी वाले दिन' का इस्तेमाल किया गया। हकीकत यह है कि अमृतसर में वैशाखी मेला की कोई परंपरा नहीं है। पंजाब में वैशाखी का मेला आनंदपुर साहिब में लगता है। जलियांवाला बाग में न पहले कभी मेला लगता था और न आज ही कोई परंपरागत आयोजन होता है। कड़वी सचाई यह भी है कि आज के अमृतसर में पांच प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि मजदूर और मानवाधिकारों के विरोधी रॉलेट एक्ट के खिलाफ 31 मार्च और 6 अप्रैल को पूर्ण बंदी तथा 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था। आंदोलन प्रभावित करने के लिए 10 अप्रैल 1919 को प्रमुख नेता डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सत्यपाल को गिरफ्तार किया गया तो युवा हिंसक हो उठे। अंग्रेजों पर हमला बोला। स्टेशन, बैंक, डाकघर को निशाना बनाया। देशभक्तों पर हुई फायरिंग में 35 शहीद हुए। 13 अप्रैल को इसी सिलसिले में शोकसभा थी, जिसमें 20 हजार से अधिक लोग मौजूद थे। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सेवा समिति के दल ने 1500 से अधिक शहीदों की सूची तैयार की थी। उक्त सूची अब गायब है।

अंग्रेजों के रिकार्ड और गजट के अनुसार 464 देशभक्त शहीद हुए थे। अमृतसर जिला प्रशासन और जलियांवाला बाग कमेटी ने 501 शहीदों की सूची तैयार की है। इनमें से सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगाया जा सका है। इनमें से 13 नाम जलियांवाला बाग शहीद परिवार समिति के अध्यक्ष भूषण बहल ने दिए हैं। सरकार सिर्फ तीन शहीद परिवारों को ही खोज सकी है। शहीदों की उपेक्षा की पोल खुलने के डर से पिछले एक साल से परिजनों को स्वतंत्रता सेनानी परिवार के रूप में स्वीकृति पत्र देने की प्रक्रिया तक शुरू नहीं की जा सकी है। हकीकत यह भी है कि जलियांवाला बाग में फायरिंग के बाद लगभग छह महीने तक गांवों के लोगों को भी अमृतसर आने-जाने नहीं दिया गया। सबूतों को खत्म करने का प्रयास किया गया। 13 अप्रैल की घटना को एक सप्ताह तक दबाए रखने की कोशिश हुई। जब देशवासियों को दर्दनाक कारनामों की जानकारी मिली तो पूरा देश जल उठा। कवियों ने जलियांवाला बाग को केंद्र में रखकर गीत लिखे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने सर की ब्रिटिश उपाधि लौटा दी। इस घटना के बाद ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। उन्हें अमृतसर पहुंचने के पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। दूसरी तरफ सत्ता से जुड़े लोगों ने मामले को रफा दफा करने की हर संभव कोशिश की। पीडि़तों को बिना देरी मुआवजा दिया गया, ताकि विरोध के स्वर कम हों। इसके साथ ही भ्रम फैलाने का दौर शुरू हो गया।

विभाजन का दर्द

सत्ता पर काबिज होने के लिए कुर्बानियों को कैसे कुर्बान किया जाता है, यह कोई जलियांवाला बाग की मिट्टी से पूछे। आजादी के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता प्रतीक के रूप में उभरे अमृतसरवासियों को देश विभाजन ने सांप्रदायिक हिंसा में झोंक दिया। 9 अप्रैल 1919 को जिस अमृतसर के लोगों ने डा. हफीज मुहम्मद बशीर के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकाला था, वहीं के लोगों ने एक दूसरे का खून किया। विभाजन के दौरान 10 लाख लोग मारे गए। अमृतसर का स्वरूप ही बदल गया। मुस्लिम बहुल अमृतसर में बड़ी संख्या में हिंदू और सिख आबादी लाहौर और पेशावर से पलायन कर आ बसी। इधर जिन लोगों के परिजनों ने बाद में वतन के लिए शहादत दी थी, वे जैसे तैसे जिंदा बचे तो, पराया वतन के हो गए। पाकिस्तानी बना दिए गए। ऐसे में कोई क्यों लेगा जलियांवाला बाग के शहीदों की सुध। उनका खानदान या तो सांप्रदायिक खून-खराबे में खत्म हो गया या पलायन कर गया। जो बच गए, वह खौफ खाते हैं कि गलती से उनके देशभक्त परिवार से संबंधित होने का राज न खुल जाए।

शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित किए जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। अब वह 60 वर्ष के हो चुके हैं। उनके साथी 90 वर्षीय सोहनलाल भारती का परिवार अमृतसर में फाकाकशी के बाद दिल्ली में दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। बाग कांड के समय सोहनलाल अपनी मां अमृतकौर के गर्भ में थे। इसी वीरांगना मां ने सुहाग लूटने वालों से मुआवजा लेने से इंकार कर दिया था। इसी तरह अमृतसर के चौक पासियां में 65 साल की उम्र में भी टेलीफोन बूथ चला कर गुजारा करने वाले नंदलाल अरोरा अपने शहीद दादा पर गर्व नहीं कर पाते। उन्हें पता है कि 1919 की घटना में अंग्रेजों का साथ देने वालों के पास आज गाड़ी-बंगले और उद्योग-धंधे हैं। वही लोग पैसे के बल पर अब नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। इन सभी घटनाक्रमों पर जलियांवाला बाग का कण - कण गवाही दे रहा है, पर कोई सुनने को तैयार नहीं। आजादी के 62 साल बाद भी वहां शहीदों की सूची तक नहीं लग सकी है।

आजादी के बाद बाग

जलियांवाला बाग को सुरक्षित रखने के नाम पर 1952 में संसद में ट्रस्ट बिल पास किया गया। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके अध्यक्ष बने। उस समय से ही सरकारी कब्जे में चल रहे बाग को अब तक राष्ट्रीय धरोहरों की सूची तक में शामिल नहीं किया जा सका है। संख्या का भ्रम बताकर शहीदों की सूची नहीं तैयार की जा रही। बुरी तरह घिरने केबाद 14 दिसंबर 2008 को भले ही सरकार ने बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर दिया, पर अब तक एक भी परिवार को स्वतंत्रता सेनानी परिवार का दर्जा नहीं मिल सका है। सवाल दो स्तर पर है। ऐसी कृतघ्नता क्यों? इतनी देरी क्यों? इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आजादी केबाद से ही जिस ट्रस्ट के अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री रहे हों, उसकी इस कदर उपेक्षा क्यों? प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह वर्ष 2007 से पदेन अध्यक्ष हैं, परंतु एक बार भी इस मसले पर मुंह नहीं खोल पाते तो संदेह और गहरा जाता है।

(प्रखर पत्रकार श्री सतीश मेरे मित्र हैं और पत्रकारिता के दौरान लगभग नौ साल उन्होंने अमृतसर में गुजारे हैं। जलियांवाला बाग के शहीदों को गति दिलाना उनका सपना है। देखें यह कब पूरे भारतवर्ष का सपना बनता है। यह सपना कब साकार होता है। -कौशल)