आज बड़े स्तर पर
चर्चा विषय है कि क्या मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रही है। चर्चा की शुरुआत मीडिया
के विभिन्न स्वरूपों से कर सकते
हैं। हम अभी समाचार पत्रों की बात करें या टेलीविजन की या वेब पोर्टल की या रेडियो की या वाट्सएप – फेसबुक – ट्वीटर वाली सोशल मीडिया की। वर्तमान दौर की पत्रकारिता में मुख्यधारा का पत्रकार बने रहना सबसे
बड़ी चुनौती है। पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियों को इस तरह से भी समझा जा सकता है
कि 60 और 70 के दशक में
बड़ी संख्या में लोग इंजीनियर – प्रोफेसर – शिक्षक की नौकरी छोड़कर पत्रकार बने तो
आज कोई छोटी सी भी सरकारी नौकरी मिलते ही लोग पत्रकारिता छोड़ देते हैं। 40 से 50 की उम्र में बड़ी
संख्या में पत्रकार मुख्यधारा से बाहर हो रहे हैं। कर्मठता इतनी है कि नया व्यवसाय
शुरू करके भी सफल हो रहे हैं। पत्रकारिता की चुनौतियों को समझने के लिए इसका
अध्ययन किया-कराया जा सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी ने पिछले दिनों ही यह बात दोहराई कि एक जीवंत लोकतंत्र में चर्चा और
मतभेद जरूरी है। हम सभी मीडियाकर्मी इससे इत्तेफाक रखते हैं। इसी सोच के साथ पत्रकारिता को पेशे के तौर पर अपनाते हैं। वर्तमान दौर में
सार्वजनिक संस्थाओं को पारदर्शी बनाने और उनके कामकाज पर स्वतंत्र तरीके से
निगरानी रखने वाली संस्था भी मीडिया मानी जाने
लगी है। जनता मानती है कि मीडिया ही उसकी आवाज है। संकट और चिंता
इसलिए भी है कि कई मीडिया मुगल सत्ता के गलियारे
में चक्कर काटते हुए देखते ही देखते हजारों करोड़ के हो गए। पत्रकार से
मालिक बन गए तो चरित्र में चौतरफा बदलाव हो गया। वह पूंजी बनाने और कमाने की कला भी जानते हैं और पत्रकारिता की
नब्ज को भी समझते हैं। रंग बदलते हैं। कहीं चाटूकार - चापलूस हैं तो पलक झपके ही
सख्त और निर्दयी हैं। दिल्ली के सत्ता के गलियारे में उनकी तूती बोलती है। नब्बे के दशक में
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुफ्त में उपलब्ध वीडियो सरकारी संस्था दूरदर्शन को बेच बेच
कर एक व्यक्ति चैनल खड़ा कर लेता है तो उसकी निरपेक्षता और
ईमानदारी पर चर्चा कहां से शुरू होगी? कहां से होनी चाहिए? उस पूंजीपति की अकूत संपत्ति की जांच शुरू होती
है तो पत्रकार विरादरी के नाम
पर हंगामा शुरू हो जाता है। हरियाणा का एक बाबा पिछले दिनों पकड़ा गया तो उसके आठवीं पास होने
से लेकर उसके रिश्तेदार के गैंगस्टर होने तक के पन्ने खोल डाले। फिर एक सवाल यह भी
है कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस का मीडिया सेल देखने वाला अश्लील वीडियों के साथ पकड़ा
जाता है तो उसे पत्रकार क्यों कहा जाना चाहिए? आज
प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है कि मीडिया की विश्वसनीयता को मीडिया से ही खतरा
है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में बिना सांस रोके लगातार एकतरफा संवाद बोलने वाले खीज पैदा कर रहे हैं।
कई न्यूज चैनलों पर देखा जा सकता है कि सोच समझ के साथ अनावश्यक विवाद खड़े
किए जाते हैं। मामले – मुद्दे भटकाए
जाते हैं। यह टीआरपी का खेल है। जिसमें सभी
नंबर वन तथा बाकी सभी फेल हैं। अगर कोई व्यवस्था भ्रष्ट बनाती है तो उससे
सांठगांठ करने वाले व्यक्ति को पाकसाफ नहीं कहा जा सकता। पहले करने, पहले पाने, पहले – पहले और पहले की होड़ के साथ-साथ काजल की
कोठरी में बेदाग रहने की चुनौती है पत्रकारिता के सामने।
वैसे तो पत्रकारिता की मुख्यधारा की
स्वतंत्रता पर सवाल उठाने वालों की कमी नहीं है। वर्तमान मीडिया में वाद है, विवाद है परंतु
संवाद गायब होता जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि मुख्यधारा की
मीडिया कुछ लोगों के हाथों में खेल रही है। इसमें संदेह है कि ऐसे लोग जनता के प्रति जवाबदेह हैं। साथ ही जनता
में भ्रम पैदा किया जा रहा है कि मीडिया में विचारधारा की
लड़ाई है। यहां तो बार-बार साफ नजर आता है कि
जिनके बीच सत्ता का संघर्ष है उन्हीं के बीच समझौता भी। अगर ऐसा नहीं होता तो जमीन
घोटाले में दामाद जी तीन साल में जेल के अंदर तो जा ही चुके होते।
मजबूत लोकतंत्र
के लिए स्वतंत्र मीडिया की अहम भूमिका को सभी स्वीकारते हैं परंतु गंभीर चुनौती है
कि भले ही आर्थिक कारणों से हो, आजादी के बाद सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने मीडिया को अपना मुखपत्र
बना लिया है। कॉरपोरेट घरानों की भागीदारी ने धार को और कुंद कर दिया। कुछ को छोड़
दें तो यह बहुत ही सरल तरीके से आभास हो जाता है कि वह अखबार या मीडिया घराने जो
मई 2014 से पहले किसी अन्य पार्टी के गुनगान में लगे थे अब पलटी मारते हुए दूसरे पाले में है। मजे की बात यह है कि कुछ ऐसे
भी घराने हैं जो पलटी नहीं मार सकते थे, जिनमें सत्ता से
वंचित हुए प्रमुख हस्तियों की आर्थिक भागीदारी है, वह एकतरफा विधवा भी विलाप करते हैं।
पत्रकार बढ़े, पत्रकारिता घटी
देश में विभिन्न
भाषाओं 400 से अधिक न्यूज चैनल हैं। इनमें
बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ – मराठी भाषाएं भी शामिल हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद वित्तपोषित कुछ
चैनल और बढ़े हैं तथा 150 से अधिक
स्वीकृति के इंतजार में है। १०
हजार से अधिक अखबार भी प्रकाशित हो रहे हैं। इसके बावजूद
हकीकत यही है कि एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा
कराए गए विश्वेषण में विशेषज्ञों ने भारतीय पत्रकारिता को 180 देशों की सूची में 136 वें स्थान पर
रखा है। अगर आजादी की ल़ड़ाई में अखबार मुख्य हथियार थे तो आज मीडिया कहां है, कुछ देर मौन होकर
खुद विचारने की जरूरत है। बुरी बात यह है कि विचार कर भी लें, समाधान के उपाय
निकाल भी लें तो पत्रकार उन्हें कारगर बनाने की स्थिति में हैं क्या। पूंजी के खेल में सबकुछ फेल। नजारा कुछ ऐसा ही है।
साथ ही यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि मानवाधिकार और व्यक्ति की आजादी के नाम पर खेल करने वालों ने मीडिया का सबसे बुरा किया है। हम सत्ता को जवाबदेह तो चाहते हैं परंतु खुद जवाबदेह नहीं बनना चाहते। मीडिया के कुछ बड़े घरानों में बेचैनी है। उनकी पिछली सत्ता से सांठगांठ थी। खूब फले – फूले। अब यह बताना मुश्किल है कि कैसे फले फूले। ध्यान रहे कुछ बड़े कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो 2014 से पहले सत्तारूढ़ पार्टी के भी मुख्य फाइनेंसर थे और बाद में सत्तारूढ़ दल के लिए भी उसी भूमिका में है। अर्थात दोनों ही उनके हैं। जनता और पत्रकारिता कई बार भ्रमित हो जाती है तो कई बार ठगा महसूस
करने लगती है। हममें से कुछ लोग हैरान हो जाते हैं जब पता चलता है कि वर्तमान सरकार को पानी पी पी कर गाली देने वाले टीवी चैनल एनडीटीवी के साथ साथ न्यूज 24, नेटवर्क 18, न्यूज नेशन और इंडिया टीवी या तो देश के सबसे धनी व्यक्ति, रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी के कर्जदार हैं या रिलायंस जीओ वाले महेंद नाहटा के। इसके आगे की कड़ी यह भी है कि पूंजी के प्रवाह से चाहे अनचाहे पक्षपाती हुए पत्रकारों पर हमले भी होते हैं। वर्ष २०१४ में ११४ पत्रकारों पर हमले हुए और बमुश्किल ३२ में ही आरोपी पकड़े गए। जनवरी २०१६ से अप्रैल २०१७ के बीच ५४ पत्रकारों पर हमले की भी सूचना है। मीडिया की विश्वसनीयता, मीडिया में भरोसा, मीडिया का
संदेहवाद या मीडिया की कुटिलता। शत्रूतापूर्ण मीडिया अवधारणा भी एक पहलू है। इन
सबके बीच एक सच्चाई यह भी है कि मीडिया से समाज उम्मीद बहुत करता है। अध्ययन बताते
हैं कि पश्चिमी मीडिया की विश्वसनीयता भी तेजी से घटी है। गूगल न्यूज से लेकर याहू
न्यूज तक विश्वसनीयता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया को खुद जज
बनने की प्रवृत्ति से भी बचना होगा। उदाहरण के तौर पर आरुषि हत्याकांड से सबक लेने
की जरूरत है। अभी गुरुग्राम का प्रद्युम्न हत्याकांड में बस के सहायक पर सवाल
उठाने वालों ने जिस तरह से पलटी मारी है वह विश्वसनीयता को ही डंवाडोल कर रही है।
आज पत्रकारिता को
कायम रखना सबसे बड़ी चुनौती है। स्पष्ट है कि पत्रकारिता महज एक मिशन तक सीमित न होकर
व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है। मीडिया संस्थानों के अपने हित हैं। आज का पत्रकार भी
संस्थानों के इन हितों की अनदेखी की स्थिति में नहीं है। कदम-कदम पर नई चुनौतियों का
सामना करना पडता है। चुनौती खबर को खबर तक सीमित रखने की, चुनौती सत्य को सत्य बनाए रखने की, चुनौती सत्ता से तालमेल बनाए रखने की। इन तमाम
चुनौतियों से पार भी पा लिया तो अहम चुनौती अपने संस्थान के हितों पर खरा उतरने की
है।
हरियाणवी में कहूं तो --- पत्रकारिता में सारे एक दूसरे से ब्याहे हुये सैं। एक का चाल चरितर गलत होवे, कोई गलत काम कर देवै, कोई गलती कर दे तो सारयां की माटी पलीद हो जावे
पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां
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मीडियाकर्मी का लक्ष्य क्या होता है। कोई व्यक्ति मीडिया में
क्यों आता है? यह निरंतर चिंतन का विषय है। एक युवा समाज की दशा दिशा बदलने के लिए
पत्रकारिता को जीविका बनाता है। मीडिया के समक्ष आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक, सापेक्षता/
निरपेक्षता / भ्रष्टाचार जैसी चुनौतिया हैं।
आर्थिक लक्ष्य --- अब तक मीडिया ऐसे सार्थक रेवन्यू मॉडल को
विकसित करने में नाकाम है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ साथ उसे
व्यावसायिक रूप से फलने फूलने का रास्ता भी मिले। वेब मीडिया ने रास्ता दिखाया पर वह भी विज्ञापन के मायाजाल में
फंसता जा रहा है। देश के दो अपेक्षाकृत विश्वसनीय अखबारों की बात करें तो इंडियन
एक्सप्रेस और दि हिंदू का नाम लेना मजबूरी होगी। दि हिंदू का रविवार का अंक 15
रुपये का है जबकि अन्य अखबार पांच रुपये तक में उपलब्ध हो जाते हैं।
सामाजिक --- समाज
को बदलने में पत्रकारों की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए उसे सकारात्मक सोच के साथ प्लानिंग
करनी होंगी। वर्तमान में पत्रकारिता में शिक्षा और चिकित्सा जैसे मुद्दों के लिए
कम ही स्थान है। विकास के मुद्दे गौण हैं। सकारात्मक खबरों को जैसे हम भूल ही गए हैं। पत्रकारिता को अपनी भूमिका को समझना
होगा और आम आदमी की आवाज बनकर आगे बढऩा होगा।
बौद्धिक - समय
के हिसाब से पत्रकारिता में बदलाव हो रहे हैं। इसलिए पत्रकारों को भी हमेशा अपडेट रहना
पड़ेगा। टेक्नोसैवी बनना पड़ेगा। हर किसी मुद्दे पर चिंतन-मंथन करते रहना होगा। नई
मीडिया के पत्रकारों ने अनुशासनहीन भाषा की संरचना को जन्म दिया। जल्द से जल्द और पहले खबर लोगों तक
पहुंचाने की होड़ में भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
अंतत: कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में मीडिया की भूमिका पर समाज की चिंता
जायज है। इसके लिए मीडिया को खुद आगे बढ़कर अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी।
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ब्रजभूषण शर्मा के शब्दों के साथ अपनी बातों को विराम देना
चाहूंगा --
धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे
कली बेच देंगे चमन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गए तो
वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।
किसी की भावनाएं आहत हुई हों तो कृपया क्षमा करेंगे।